Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
प्रस्ताव ५ : बटरगुरु कथा
७५
बुधाचार्य-राजन् ! लोग महामोह के वशीभूत होकर वस्तुतत्त्व को नहीं समझते (सत्यमार्ग पर नहीं चलते और परमार्थ सुख के विषय में विचार भी नहीं करते ।) जैसे इस बठरगुरु ने किया था। [२६४]
धवल राजा--भगवन् ! यह बठरगुरु कौन था और उसे तत्त्वबोध क्यों नहीं
हुआ ?
बुधाचार्य-राजन् ! मैं तुम्हें बठरगुरु की कथा विस्तार से सुनाता हूँ। सुनो--. बठरगुरु को कथा
भव नामक एक बड़ा गाँव था। इस गाँव में स्वरूप नामक शिव मन्दिर था। यह मन्दिर मूल्यवान रत्नों से पूर्ण, विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों से भरपूर, द्राक्षादि स्वादिष्ट शीतल मधुर पेय से युक्त, धन-धान्य से समृद्ध और सोने, चाँदी, कपड़े तथा वाहनों से सम्पन्न था। यह शैव देवमन्दिर स्फटिक जैसा निर्मल, उत्तुंग, सुखोत्पादक और सब प्रकार की सामग्री से परिपूर्ण था। [२६५]
___ इस शिव मन्दिर में सारगुरु नामक शिवाचार्य अपने कुटुम्ब के साथ रहता था। वह इतना ग्रथिल (गेला, मूर्ख) था कि अपने हितेच्छू और प्रेमी कुटुम्बीजनों का भी भली प्रकार पालन-पोषण नहीं करता था और न उनके स्वरूप (वास्तविकता) को ही जानता था। शिवमन्दिर में कैसी समृद्धि भरी हुई है, यह भी वह नहीं जानता था । अर्थात् उसकी मूर्खता की पराकाष्ठा तो यह थी कि वह न तो यह जानता था कि घर में कौन-कौन हैं और न यह जानता था कि घर में कितनी पूजी है।*
उस गाँव के चोरों को यह पता लग गया था कि शिव मन्दिर में कितनी समृद्धि है और उसके मर्ख व्यवस्थापक को इसका पता भी नहीं है। अतः धर्त चोरों ने वहाँ आकर सारगुरु से मित्रता गाँठी। पगला प्राचार्य चोरों को भले लोग, हितेच्छु, प्रेमी और हृदयवल्लभ समझने लगा। परिणामस्वरूप प्राचार्य अपने कुटुम्ब का अनादर कर चोरों के साथ निरन्तर विलास करने लगा और अपने कुटुम्ब को भूल-सा गया।
सारगुरु के ऐसे विचित्र व्यवहार को देखकर शिवभक्त उसे समझाने लगे"भट्टारक ! आप जिनकी संगति कर रहे हैं वे महाधूर्त और चोर हैं । आपको उनकी संगति छोड़ देनी चाहिये ।' सारगुरु ने तो उनकी बात सुनी ही नहीं, सुनी भी अनसुनी करदी। उसकी मूर्खता से तंग आकर लोगों ने उसका नाम बठर (मूर्ख) गुरु रख दिया। आखिर में जब लोगों को यह विश्वास हो गया कि यह मूर्ख धूर्त और तस्करों से घिर गया है और उनकी मैत्री में ही आनन्द मानता है तब लोगों
* पृष्ठ ५१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org