Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति भव-प्रपंच कथा
अनादिकालीन अभ्यास और योग के कारण मेरी स्थिति ऐसी हो गई है कि मेरा चपल मन अपवित्र कीचड़ के गड्ढे में गन्दे सूअर के समान फंसा ही रहता है ।
हे नाथ ! मैं अपने इस चंचल मन को रोकने में असमर्थ हूँ, अतः हे देव ! आप कृपाकर इसे रोकें ।
प्रभो ! मेरे बार-बार प्रार्थना करने पर भी आप उत्तर नहीं देते, तो हे अधिपति ! क्या आपको मुझ पर अभी भी संदेह है कि मैं आपकी आज्ञा का किचित् भी पालन नहीं करूंगा ?
प्रभो ! मैं आपका किंकर बनकर आपकी सेवा में इतना आगे बढ़ गया कि उच्च और स्वच्छ भावना पर चढ़ रहा हूँ, फिर भी ये परीषह मेरा पीछा कर रहे हैं, इसका क्या कारण है ?
आपको प्रणाम करने वाले लोगों की शक्ति को बढ़ाने वाले हे मेरे नाथ ! अभी भी ये दुष्ट उपसर्ग मेरा पीछा नहीं छोड़ते, इसका क्या कारण है ? हे स्वामिन ! आप तो समस्त विश्व के द्रष्टा हैं तथापि आश्चर्य है कि आपका यह सेवक आपके सामने बैठा है और उसे यह कषाय रूप शत्रुवर्ग पीड़ित कर रहा है, तब भी आप मेरी तरफ क्यों नहीं देखते ? प्राप मुझे इन शत्रुओं से छुड़ाने में समर्थ हैं और मैं पकी करुणा के योग्य हूँ तथापि प्राप मुझे कषाय- शत्रुओं से घिरा हुआ देखकर भी मेरी उपेक्षा करते हैं, यह आप जैसे शक्ति सम्पन्न के लिये उचित नहीं है । ग्रहो महाभाग्यवान ! संसार से मुक्त ग्रापको देखने के पश्चात् इस विषम-संसार में क्षरण मात्र भी रहने में मुझे किंचित् भी प्रीति नहीं है ।
हे प्रभो ! प्रांतरिक शत्रु समूह ने मुझे दारुरण बन्धनों से जकड़ रखा है, बांध रखा है, अतः मैं क्या करू ?
हे नाथ ! आप कृपा कर अपनी उद्दाम लीला से मेरे इस शत्रु समूह को मेरे से दूर करदें जिससे मैं आपकी शरण में आ सकूं ।
धीर ! हे परमेश्वर ! यह संसार आपके आश्रित है और मुझे इस संसार सागर से पार लगाना भी आपके अधीन है । भगवन् ! यदि ऐसा ही है तो आप चुपचाप क्यों बैठे हैं ? मेरा उद्धार क्यों नहीं करते ?
हे करुणाधाम ! अब संसार समुद्र से मेरा बेड़ा पार लगाइये, देर मत कीजिये । आपके अतिरिक्त मेरा कोई शरण नहीं है, आधार नहीं है, अत: मेरे उच्चरित उद्गारों को क्या आप जैसे महापुरुष अब भी नहीं सुनेगें । [१६-५०]
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