Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति भव-प्रपंच कथा
वह विद्याधरी अपने रूप और लावण्य के तेज से समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर रही थी और हाथ में यमराज की जिह्वा जैसी भीषरण नंगी तलवार लिये हुए थी । [ २५५ ]
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एक ही समय में सुन्दर और भयंकर रूप वाली उस विद्याधरी को देखकर मैं शृंगार और भयानक रस का एक साथ अनुभव कर ही रहा था कि उसने मुझे वहाँ से उठाया और आकाश मार्ग में तेजी से उड़ने लगी ।
उस समय मैंने हा कुमार ! हा कुमार ! ! कह कर जोर से आवाजें लगाई, पर मुझ विह्वल और रोते-चिल्लाते को लिये हुए वह विद्याधरी और भी तेजी से आगे बढ़ने लगी । आकाश में उड़ते-उड़ते वह अपने पीन पयोधरों को मेरे वक्ष से चिपका कर मुझे अपनी बाहों में भींचकर प्रति स्नेह से बार-बार मेरे मुँह का चुम्बन करने लगी और रतिक्रिया के लिये मुझ से प्रार्थना करने लगी । मित्र ! यद्यपि वह स्त्री मुझ पर इतनी अनुरक्त थी और इतना स्नेह दिखा रही थी, फिर भी तेरे जैसे श्रेष्ठ मित्र के वियोग में वह मुझे विष जैसी लग रही थी । सारे वक्त मैं यही विचार कर रहा था कि यद्यपि यह विद्याधरी अत्यधिक रूपवती है और मुझ पर इतनी अधिक प्रासक्त है तथापि उससे भी अधिक उत्तम मित्र के बिछोह में वह लेशमात्र भी मुझे सुख नहीं दे सकती । [ २५६-२५६ ]
वह विद्याधरी मुझसे सम्भोग के लिये प्रार्थना कर ही रही थी कि अचानक एक-दूसरी विद्याधरी वहाँ आ पहुँची और उसने मुझे देखा । मुझे देखते ही उसे भी मेरे साथ विषय-सुख भोगने की इच्छा जागृत हो गई और वह भी मुझे खींचने लगी । इस खींचातान में दोनों विद्याधरी एक-दूसरे को 'प्रो पापिनी ! दुष्टा ! तू कहाँ जा रही है ?' कहती हुई अपशब्दों की मारामारी करने लगी और उनमें घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया । [ २६० ]
वे दोनों लड़ाई में इतनी व्यस्त हो गई कि मेरा भान ही भूल गई जिससे मैं उनके हाथ से छूट पड़ा और भूमि पर आ गिरा। इतने ऊपर से गिरने के कारण मेरी हड्डियां चूर-चूर हो गईं और मेरे बहुत सी चोटें आईं। मेरा शरीर चूर्ण बन गया और मुझ में भागने की भी शक्ति न रही । फिर भी मैं सोचने लगा कि 'इन दोनों में से कोई आकर मुझे पकड़े उससे पहले ही यदि मैं यहाँ से भाग जाऊँ तो इस जीवन में विमल से मिल सकता हूँ' यही सोचकर मैं बड़ी कठिनाई से छिपते हुए वहाँ से भागा । मार्ग में मेरा पता लगाने आये हुए तेरे पुरुष मुझे मिल गये और मैं इनके साथ तेरे पास चला आया । * कुमार ! यही मेरी ग्राप बीती है ।
विमल का मुझ पर स्वाभाविक और निष्कपट प्रेम था जिससे मेरी बनावटी कहानी सुनकर भी वह बहुत प्रसन्न हुआ । मेरे शरीर में बसी हुई बहुलिका ( माया )
* पृष्ठ ४६६
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