Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
भी नहीं सकते । फिर भी मेरे माता-पिता अत्यधिक चिन्तित हो रहे होंगे अतः इस कारण से उन्हें शान्ति प्रदान करने के लिये लाचारी से मुझे ऐसा कहना ही पड़ रहा है । [२४१-२४६]
विमल-आर्य रत्नचूड ! यदि ऐसा ही है तो आप प्रसन्नता से जाइये, परन्तु मैंने जो अभ्यर्थना की है उसे भूल मत जाना । किसी भी प्रकार से महात्मा बुधसूरि को एक बार यहाँ अवश्य लाना।
रत्नचूड-कुमार ! इस विषय में संकल्प-विकल्प करने की आवश्यकता ही नहीं है।
सज्जन पुरुष के बिछोह की कल्पना मात्र से कातरहदया आम्रमंजरी आँखों में आँसू लाते हुए टूटती आवाज में बोली-कुमार ! आप मेरे सगे भाई हैं। हे नरोत्तम ! आप मेरे देवर हैं। हे सुन्दर ! वस्तुतः आप ही मेरे शरीर और प्राण हैं । आप ही मेरे नाथ अर्थात् कुशल-क्षेमकारक हैं ।* हे महाभाग ! देखो, मैं गुणहीन हूँ इसलिये मुझे भूल मत जाना, मुझे याद रखना । आप जैसों के स्मृति पटल में जो व्यक्ति रहे वह वास्तव में भाग्यशाली है। [२५०-२५१]
विमल-आर्ये ! यदि मैं अपने गुरु और गुरुपत्नी को भी स्मृति पटल में नहीं रखू तो मेरा धर्म कहाँ रहा और मेरी सज्जनता या बड़प्पन भी कहाँ रहा ? [२५२]
इस प्रकार मेरे साथ वार्तालाप करते हुए रत्नचूड और आम्रमंजरी वहाँ से विदा हुए।
८. दुर्जनता और सज्जनता
गुरुकर्मी वामदेव
___संसारी जीव अगृहीतसंकेता के समक्ष स्वय की वामदेव के भव की कथा आगे सुनाते हुए कहता है कि, हे भद्रे अगृहीतसंकेता ! रत्नचूड और विमलकुमार ने बहुत ही उच्चकोटि की धर्म सम्बन्धी इतनी बात-चीत की, पर गुरुकर्मी और लम्बे समय तक संसार भ्रमण करने वाला होने से, मद्यपी, निद्रित, विक्षिप्त, मूछित, अनुपस्थित और मृतप्रायः की भाँति मेरे हृदय में धर्म का एक वचन भी
* पृष्ठ ४६३
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