________________
.
प्रस्ताव ४ : नरवाहन-दीक्षा
६४७
नरवाहन का चिन्तन : सन्मार्ग का अन्वेषण
विचक्षणसूरि जब उपर्युक्त बात कह रहे थे तब ऐसा लगता था कि उनके मन में यदि थोड़ा भी मद शेष रह गया होगा तो बह भी अब गल गया है, ऐसा स्पष्ट प्रतिभासित हो रहा था । नरवाहन राजा अपने मन में विचार कर रहा था कि अहा! इन आचार्य भगवान् ने तो स्वयं की आत्मकथा ऐसे सुन्दर रूप में सुनाई कि उसे सुनकर ही मेरे तो मोह का भी नाश हो गया। अहा ! आचार्य भगवान् की बात कहने और बोलने का ढंग भी कितना सुन्दर है । अहो ! इनका विवेक भी कैसा आश्चर्यजनक है । अहो ! इनकी मुझ पर कितनी कृपा है ! इन्होंने तो किसी अद्भुत परमार्थ को जान लिया है । प्राचार्य भगवान् स्वयं जो बात कर रहे हैं, उस बात का रहस्य अब मुझे ज्ञात हो गया है।
मन में उपर्युक्त विचारों के आते ही नरवाहन राजा ने विचक्षणाचार्य से कहा :
भगवन् ! इस संसार में आपको शुभोदय, निजचारुता, बुद्धिदेवी, विमर्श, प्रकर्ष आदि जैसा सुन्दर कुटुम्ब मिला है वैसा सुन्दर आन्तरिक परिवार मेरे जैसे भाग्यहीन प्राणी को नहीं मिल पाया है। आप तो सचमुच भाग्यशाली हैं । पूज्यवर ! जैन वेष में रहकर ऐसे सुन्दर अन्तरंग परिवार का पोषण करने वाले (गृहस्थ) तो आपके जैसे भगवान् ही हो सकते हैं । आपश्री ने तो युक्तिपूर्वक रसना को निःसत्व बना दिया है जिससे वह आप पर कुछ भी असर नहीं कर सकती। उससे भी अधिक बुरी उसकी दासी लोलता है जिसे जीतना संसार में अति कठिन है, उसे आपने बिलकुल त्याग दिया हैं। हे मुनिश्रेष्ठ ! आपने महामोह और उसके पूरे परिवार को जीत कर अपने पूरे अन्तरंग परिवार को साथ में रखते हुए इस अति सुन्दर जैनपुर में सर्व साधुओं के मध्य में रह रहे हैं। मैंने आपको दुष्कर काम करने वाला कहा जिसका आपने प्रतिवाद किया, पर यदि आपको दुष्कर कार्य करने वाला न कहा जाय तो फिर इस संसार में अन्य किसको कहो जाय? यह मेरी समझ में नहीं आता । भगवन् ! मैं आपसे एक अन्य बात पूछना चाहता हूँ। सम्पूर्ण संसार को आश्चर्य में डालने वाली जैसी घटना आपके जीवन में घटित हुई है, वैसी ही यदि अन्य किसी भी व्यक्ति के सम्बन्ध में घटित हो तो वे सब वास्तव में वन्दनीय, पूजनीय और नमस्कार करने योग्य हैं ऐसा मैं मानता हूँ। अत: मैं यह जानता चाहता हूँ कि आपके साथ जो ये सब साधु हैं, उनके सम्बन्ध में भी क्या ऐसा ही घटित हुआ है या नहीं * कृपया आप मुझे बताइये। [३७१-३७७]
विचक्षणाचार्य बोले- नरवाहन भूप ! निश्चय ही समस्त साधुओं के सम्बन्ध में भी ऐसा ही घटित होता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है । एक अन्य * पृष्ठ ४६२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org