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उपामति-भव-प्रपंच कथा इस जगत में शैलराज (अभिमान) के वश में होकर मैं भटकता रहा और मृषावाद के वश में होकर स्वयं को विद्वान् मानकर घूमता रहा । इन दोनों के वशीभूत होकर मैंने अपनी माँ को मारा और पत्नी को आत्महत्या करने दी। इसी पापकृत्य के फलस्वरूप ही मुझे विडम्बनायें प्राप्त हो रही हैं।
[ मेरे हृदय के उपर्युक्त उद्गार चालू राग में निकल गये । इससे नाचने वाले और अधिक ललकार-ललकार कर गाने लगे, मानो वे मेरे हृदय में यह बात ठस रहे हों कि जो व्यक्ति अभिमान करता है और असत्य-भाषण करता है वह अपने भयंकर पापों का फल इसी तरह भोगता है ।]
योगेश्वर मेरी पहले की आत्मकथा अच्छी तरह जानता था, इसलिये उसने नाचने वालों में कहा कि, अरे रास करने वालों ! तुम इस प्रकार गानो और नाचो
योऽत्र जन्ममतिदायिगुरूनवमन्यते, सोऽत्र दासचरणाग्रतलेरपि हन्यते । यस्त्वलीकवचनेन जनानुपतापयेत्, तस्य तपननप इत्युचितानि विधापयेत् ।। ४४१ ।।
यो हि गर्वमविवेकभरेण करिष्यते- इत्यादि । जो व्यक्ति जन्म देने वाली माँ और बुद्धि देने वाले गुरु का अपमान करता है वह यहीं दास लोगों के पांवों तले रौंदा जाता है और अपमानित होता है । जो झूठ बोलकर लोगों को दुःखी करता है उसे तपन चक्रवर्ती इसी प्रकार योग्य दण्ड देते हैं ।
इस प्रकार गाते-गाते और नाचते-नाचते वे पैरों से और मुट्ठियों से मुझे निर्दयता पूर्वक मारने लगे । अर्थात् मेये शरीर पर प्रहार पर प्रहार करते हुए जोरजोर से ताल देने लगे, मानो वे मेरा कचूमर निकाल देना चाहते हो । ताल के साथसाथ उन सब के पैर एक ही साथ मेरे शरीर पर इतनी जोर से पड़ते थे मानो भारी सघन लोह के गोले से मुझे मारा जा रहा हो । इतनी जोर की मार से मेरा शरीर दब रहा था। उस समय मेरी चेतना अवरुद्ध हो गई, मैं घबरा गया और प्राकुलव्याकुल हो गया।
योगेश्वर के साथ आये राजपुरुष चक्राकार घेरा डालकर मेरे चारों तरफ परमाधामी देवों की तरह मुझ पर कड़ा पहरा लगाये घूम रहे थे और मुझे घेरे से बाहर नहीं निकलने देते थे। एक दूसरे से रास खेलते, ध्र वपद और दूसरे पद जोरजोर से गाते, त्रिताल देते और ताल आने पर मेरे शरीर पर पैरों से ताल ठोंकते । इस प्रकार वे नाचते-नाचते मुझे पूरे नगर में घुमाते हुए जहाँ तपन चक्रवर्ती थे वहाँ लेकर आये । वहाँ आने पर उनमें और अधिक उत्साह आय। और जोर-जोर से झुक
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