________________
प्रस्ताव ५ : विमल का उत्थान : गुरु-तत्त्व-परिचय
के साथ आगत समस्त सखियों ने भी हर्षित होकर समस्त उचित क्रियाएँ निष्पादित की और गायन तथा पूजा में उल्लासपूर्वक सम्मिलित हुईं। अन्त में महादान दिया गया और अन्य सभी आवश्यक क्रियाएँ पूर्ण की गयीं।
रत्नचूड का गुरु-दर्शन
इस प्रकार महदानन्द और उल्लास के साथ भगवान का अभिषेक-पूजन पूर्ण कर साधु-वन्दना के लिये मैं मन्दिर से बाहर आया। मैंने देखा कि एक महातपस्वी प्राचार्य साधुवृन्द के मध्य में कमलासन पर विराजमान हैं। मन्दिर में प्रवेश करते समय जैसे मधुर गम्भीर वाणी से धर्मोपदेश कर रहे थे वैसा ही आकर्षक धर्मोपदेश अभी भी कर रहे थे। परन्तु, इस समय उनका रूप अनुपम सुन्दर था। वे रतिरहित कामदेव के समान, रोहिणीरहित चन्द्र के समान, शचीरहित इन्द्र के समान, तप्त उत्तम सुवर्ण के समान, द्य तिमान एवं तेजस्वी थे और स्वकीय देह-दीप्ति की प्रभा से आस-पास बैठे मुनिमण्डल को भी कंचनमय (पीतवर्णी) बना रहे थे। उनके पाँव के तलवे (पगथली) कछुए के समान उन्नत, नाड़ियों का जाल गूढ और छिपा हुआ, प्रशस्त शुभ लक्षणों से चिह्नित, दर्पण के समान जगमग करते हुए नाखून, दोनों चरणों की सुश्लिष्ट अंगुलियाँ, हस्तिशण्ड के समान जंघाएँ, सिंह-शावक की लीला को भी तिरस्कृत करने वाली कठिन पुष्ट गोलाकार और विस्तृत कटि, प्रलम्बमान (घुटने को छूने वाली) भुजाएँ, मदोन्मत्त विशाल हाथी के कुम्भस्थल को भेदन करने में समर्थ हथेलियां, त्रिवली विराजित कण्ठ, चन्द्र एवं कमल की शोभा को भी हीन दिखाने वाला मुख, उत्तुङ्ग एवं सुस्थित नासिका, सुश्लिष्ट मांसल और प्रलम्ब कान, कमल दल की शोभा से भी अधिक शोभायमान एवं कमनीय आँखें, एक समान और मिली हई दन्त-पंक्ति से स्फुरायमान प्रभा से रक्ताभ अधर, अष्टमी के चन्द्र के समान दैदीप्यमान विशाल ललाट जो नीचे के शरीरावयवों पर चूडामणि की शोभा को धारण कर रहा था। अधिक क्या कहूं? इस समय वे अतुलनीय और अनुपमेय शारीरिक सौन्दर्य के धारक थे।
साधु-पुरुषों की लब्धियाँ
मैंने मन्दिर में प्रवेश करते हए प्राचार्यश्री को धर्मोपदेश देते हुए उनकी गम्भीर एवं मधुर ध्वनि सुनी थी,* अतः उनका वही धीर-गम्भीर स्वर सुनकर मुझे विस्मय हुआ और मैं अाश्चर्यान्वित होकर सोचने लगा कि, मंदिर प्रवेश के समय मैंने जो स्वर सुना था ठीक वह ऐसा ही था। अहो ! तब तो मन्दिरप्रवेश के समय जो प्राचार्य धर्मदेशना दे रहे थे वे भी यही होने चाहिए, किन्तु वे तो एकदम कुरूप थे, फिर इनका अनुपम सुन्दर रूप कैसे हो गया ? पर इसमें नवी
* पृष्ठ ४६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org