Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ५ : विमल का उत्थान : गुरुतत्त्व - परिचय
उपकार-कीर्तन
प्रणाम कर रहे विमल को उठाकर रत्नचूड ने स्वधर्मीबन्धु की भांति स्वयं प्रणाम किया और बोला - कुमार ! मेरा मानसिक उत्साह और मेरे मन के सभी मनोरथ एक क्षण मात्र में पूर्ण हुए हैं तथा प्रत्युपकार करने की मेरी इच्छा भी पूर्ण हुई है, क्योंकि जिस महान तत्त्वज्ञान एवं तत्त्वमार्ग का तुझे पूर्व जन्म में परिचय हुआ था, उसे इस जन्म में स्मरण कराने में मैं निमित्त बना । मेरी भावना पूर्ण हुई । हे कुमार ! तुझे जो इतना अधिक हर्ष हो रहा है वह ठीक ही है । कहा भी है
सन्नारी, पुत्र, राज्य, धन, मूल्यवान रत्न या स्वर्ग के सुख मिलें तब भी महात्मा पुरुषों को संतोष नहीं होता है, क्योंकि ये सभी सुख तुच्छ, बाह्य और अल्पकालीन हैं, अतः विचारशील धीर पुरुषों को तो इनसे संतोष हो ही नहीं सकता । इस महा भयंकर भव-समुद्र में प्रति दुर्लभ जैनेन्द्र मार्ग की प्राप्ति होने पर ऐसे महात्मा पुरुषों का हृदय हर्ष से परिपूर्ण हो जाता है । कारण यह है कि सर्वज्ञ - प्ररूपित धर्म की प्राप्ति होते ही प्राणी समता सुख रूपी अमृत के स्वाद का अनुभव करता है और उसके मन में प्रतीति होती है कि अनन्त श्रानन्दपूर्ण मोक्ष को प्राप्त करवाने में यही निश्चितरूप से साधन बन सकता है । प्रतएव सर्वज्ञ मार्ग की प्राप्ति से सज्जन पुरुषों को हर्ष और उल्लास क्यों न हो ? [२१६-२२३]
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सभी प्राणी अपनी शक्ति के अनुसार फल प्राप्त करना चाहते हैं । कुत्ते को तो रोटी का टुकडा मिलने से वह सन्तुष्ट हो जाता है, किन्तु सिंह को अपने पराक्रम से हाथी का शिकार कर उसके मांस से ही संतोष होता है । चूहे को चावल के दाने मिल जाय तो ऊंचा- नीचा होकर नाचने लगता है, जब कि हाथी को तो सुभोजन देने पर भी वह उपेक्षा से ही ग्रहण करता है । [ २२४-२२५]
जिन्हें तत्त्वज्ञान का दर्शन नहीं हुआ, वे मूढ़ प्राणी क्षुद्र मन वाले होते हैं और थोड़े से धन या राज्य की प्राप्ति होते ही फूलकर कुप्पा हो जाते हैं । [२२६] धीर ! तुझे तो चिन्तामणि रत्न जैसा महामूल्यवान रत्न प्राप्त होने पर भी तूने इसे मध्यस्थ भाव ( सहज भाव ) से स्वीकार किया, किन्तु तुम्हारे मुख पर हर्ष की या विषाद की एक रेखा भी मैंने नहीं देखी। जब कि सन्मार्ग - लाभ ( सर्वज्ञ मार्ग ) की प्राप्ति से तेरा सारा शरीर रोमांचित हो गया और तुझे इतना अधिक आनन्द हुआ कि तेरे सारे शरीर में हर्ष के लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगे । हे श्र ेष्ठ पुरुष ! तू वास्तव में धन्य है, साधुवाद का पात्र है । [२२७–२२८]
भाई ! मेरा इतना अधिक उपकार मानने की और मुझे गुरु मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। बार-बार मेरे पांवों में पड़कर मुझे लज्जित क्यों करते हो ?* मैंने ऐसा तुम्हें क्या दे दिया है ? मैं तो निमित्त मात्र हूँ । तू स्वयं ही ऐसी कल्याण
* पृष्ठ ४८८
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