Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
३२
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
आस्तिकता सुदृढ़ हो गई थी, शुद्ध देव गुरु धर्म पर परिपूर्ण श्रद्धा हो गई थी, सद्गुरुओं पर अपूर्व भक्ति वृद्धि को प्राप्त हुई थी और उस समय तप-संयम तो घर के ही हो गये थे । इसीलिये आज भगवान् के बिम्ब के दर्शन करते ही उसके निष्कलंक भाव हृदय पर अवतरित होने लगे और मैं अमृत सिंचित प्रीति से पूर्ण, सुख से सराबोर और हर्ष-प्रमोद से आछन्न हो गया होऊ, ऐसा लगने लगा।
। उस समय मेरे मन में आया कि, अहा ! ये देव राग, द्वेष, भय, अज्ञान, शोक आदि से रहित हैं। ये प्रशान्त मूर्ति दिखाई देते हैं और* इनको देखने से नेत्र आनन्दित होते हैं। इनको बारम्बार देखने से मुझे अधिक प्राल्लाद होता है। इससे मुझे लगा कि मैंने निश्चित रूप से पहले भी कभी इन्हें भली प्रकार देखा है । यह चिन्तन करते हुए मैं लोकातीत अवर्णनीय रस-जो अनुभति के द्वारा संवेद्य (स्मति में प्राता) है और जो अत्यधिक सुन्दर है-में डूब गया। अपने एक पूर्वजन्म में मुझे उत्तम सम्यक्त्व रत्न प्राप्त हुआ था, उस जन्म से आज के जन्म तक की सभी भूतकालीन घटनाओं का मुझे स्मरण हो पाया। [२१५-२१८]
__ महात्मन् ! मन्दिर में खड़े-खड़े ही मुझे यह जाति-स्मरण ज्ञान हो गया, अतः महान गुरु द्वारा प्राणियों को होने वाले लाभ को आपने मुझे आज ही प्राप्त करवा दिया है।
__ऐसा कहते-कहते रत्नचड के पांवों को विमलकुमार ने फिर पकड़ लिया और बोला--हे नरोत्तम ! मेरी मूर्छा को लेकर चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है । रत्नचूड विद्याधर ने उसे उठाया और गले लगाकर स्वधर्मी-बन्ध की तरह अत्यन्त विनयपूर्वक उसे प्रणाम किया।
७. विमल का उत्थान : गुरु-तत्त्व-परिचय
[रत्नचूड ने वास्तव में उपकार का बदला चुकाया। देव दर्शन करवाकर विमल की आत्मा को मोक्ष के प्रति उन्मुख किया जिसके लिए विमल रत्नचूड का आभार मान रहा था। रत्नचूड विमल के उपकार का बोझ नहीं सह सका, क्योंकि वह स्वयं विमल के उपकार से दबा हुआ था। हे अगृहीतसंकेता ! फिर रत्नचूड ने विमल को गुरु-तत्त्व का परिचय कराया, सुनो।]
* पृष्ठ ४८७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org