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प्रस्ताव ५ : माया और स्तेय से परिचय
मैं (वामदेव)-भाई ! वास्तव में मुझे अभी यह बात याद नहीं पा रही है, पर मेरे हृदय में ऐसे भाव पा रहे हैं मानो तुम्हारे साथ लम्बे समय से परिचय रहा हो । भाई मृषावाद ! जब से मैंने तुम्हें देखा है तब से मेरी आँखें हिम जैसी शीतल हो गई हैं और मेरे मन में आनन्द ही आनन्द छा गया है । [४६-४७]
किसी प्राणी को देखने से पूर्व-जन्म में घटित घटना का स्मरण (जातिस्मरण) हो जाता है। जैसे इस जन्म में भी हम जब अपने किसी प्रिय स्नेही सम्बन्धी को देखते हैं तब हृदय प्रफुल्लित हो जाता है, पर जब किसी अप्रिय व्यक्ति को देखते हैं तब मन खिन्न हो जाता है। [४८]
अतः, हे भाई ! तुझ इस सम्बन्ध में किंचित् भी शोक नहीं करना चाहिये। मित्र ! तू मेरे प्राण के समान है । अब तुझे जो प्रयोजन (कार्य) हो वह प्रसन्नता से कह । [४६]
मृषावाद-भाई वामदेव ! मुझे यही कहना है कि मेरी यह बहिन जो मेरे साथ में आई है उसका तुम्हारे प्रति अत्यन्त स्नेह है। यद्यपि नये-नये नाम निकालने में आनन्द मानने वाले लोगों ने इसे माया के नाम से प्रसिद्ध कर रखा है तथापि इसके आचरण से प्रसन्न होकर इसका दूसरा सुन्दर नाम बहुलिका रखा गया है । इस समय तो मुझे केवल यही कहना है कि जैसा बर्ताव तुमने मेरे साथ रखा था वैसा ही इसके साथ भी रखना। मैं तो अभी छुपकर रहूंगा क्योंकि मेरे प्रकट होने का अभी अवसर नहीं आया है ।* अभी तो यही तेरा साथ अधिक देगी। परन्तु, जहाँ यह रहेगी वहाँ तत्वतः मैं तो रहूंगा ही, क्योंकि हम दोनों का अन्योन्य स्वरूप अभिन्न है। मेरे साथ यह जो दूसरा पुरुष है, यह मेरा छोटा भाई है। वर्तमान काल में यह तुमसे मित्रता करने योग्य है। इसीलिये इसे भी मैं साथ लेकर पाया हूँ । इसका नाम स्तेय है । यह प्रचण्ड-शक्ति-सम्पन्न और महा-तेजस्वी है । पहले यह छुपकर रहता था, परन्तु अभी अपने योग्य प्रसंग को जानकर यहाँ पाया है। इसके सम्बन्ध में भी मुझे यही कहना है कि जैसा प्रेम तू मुझ पर रखता था, वैसा ही स्नेहपूर्ण व्यवहार तू इसे अपना प्यारा भाई समझ कर इसके साथ रखना। [५०-५६]
मैं (वामदेव)-प्रिय मित्र! मैं ऐसा ही समझगा कि जो तुम्हारी बहिन है वह मेरी भी बड़ी बहिन है और जो तुम्हारा भाई है वह मेरा भी भाई है । इस विषय में तुझे कहने की या संशय करने की आवश्यकता नहीं है । [५७]
___ मृषावाद-मित्र ! बड़ी कृपा की । तुमने मुझ पर बहुत अनुग्रह किया । तुम्हारे ऐसे वचन को सुनकर मैं सचमुच कृतकृत्य हुआ । हे नरोत्तम ! तुम धन्यवाद के पात्र हो। [५८]
_ऐसा कहकर मृषावाद अन्तर्ध्यान हो गया। * पृष्ठ ०७२
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