Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ५ : प्राकाशयुद्ध
२१
कहाँ चले गये ? मेरा क्या होगा ?' उस समय मैंने और विमलकुमार ने अनेक प्रकार से धीरज बंधाकर उसे आश्वस्त किया । *
विमल का श्राभार
कुछ समय पश्चात् सुन्दरी के साथ वाला पुरुष विजय प्राप्त कर विजयश्री की कान्ति से दीप्त और हर्षित होता हुआ, आतुरता से सुन्दरी को ढूंढ़ता हुआ वेग लतागृह में पहुँचा । [ १७२]
उसे आया देखकर सुन्दरी को अत्यन्त हर्ष हुआ, मानो उसके सम्पूर्ण शरीर पर अमृत वृष्टि हुई हो । उसके अंगोपांग आनन्दातिरेक से पुलकित हो गये । सुन्दरी ने विमलकुमार की शरणागतता का वृत्तान्त संक्षप में कह सुनाया जिसे सुनकर उसने विमलकुमार को प्रणाम किया और कहा
हा ! ऐसे विषम समय में आपने मेरी प्रिय पत्नी की रक्षा की है अतः आप मेरे बन्धु हैं, पिता हैं, माता हैं, मेरे जीवन - प्रारण हैं । हे पुरुषोत्तम ! हे नरोत्तम !! हे धीर ! आप वस्तुतः धन्यवाद के पात्र हैं, अथवा मैं आपका दास हूँ, नौकर हूँ, बिका हुआ गुलाम हूँ, संदेशवाहक चाकर हूँ । प्रदेश दीजिये, अब मैं आपकी क्या सेवा करू ? [ १७३-१७४]
उत्तर में विमलकुमार बोला- महापुरुष ! इस प्रकार शीघ्रता करने की और मेरा प्राभार मानने की कोई आवश्यकता नहीं है । मैं आपकी स्त्री को बचाने वाला कौन होता हूँ । वास्तव में तो आपने हो अपने माहात्म्य से उसे बचाया है । भद्र ! मुझे यह दृश्य देखकर अत्यधिक कौतुक हो रहा है । क्या आप मुझे यह बताने का कष्ट करेंगे कि यह सब घटना कैसे घटित हुई और युद्ध निमन्त्रण पर आपके आकाश में उड़ जाने के बाद क्या हुआ ?
उपरोक्त प्रश्न का सविनय उत्तर देते हुए उस देव- पुरुष ने कहा -- यदि आपको यह घटना सुनने की वास्तविक उत्सुकता हो तो आप थोड़ी देर शान्ति से यहाँ बैठिये, क्योंकि यह कथा बहुत लम्बी है ।
फिर सभी लोग लतागृह में पृथ्वीतल पर प्राराम से बैठे और देव पुरुष ने अपनी कथा प्रारम्भ की ।
* पृष्ठ ४८०
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