Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
प्रस्ताव ४ : नरवाहन-दोक्षा
६४६
ढोल भी उचित नहीं है। आपको जब तत्त्व का रहस्य समझ में आ गया है तब अविलम्ब जैनपुर में प्रवेश कर लेना चाहिये । [३८६-३६३]
प्राचार्य भगवान की वाणी से सन्तुष्टचेता राजा के मन में दीक्षा लेने की मुदृढ़ इच्छा हो गई। ऐसी प्रबल इच्छा के कारण राजा मन में सोचने लगा कि मेरे राज्य का उत्तरदायित्व मैं किसको सौंपू ? क्या मेरा पुत्र रिपुदारण राज्य के योग्य है ? हे अगृहीतसंकेता! उस समय मैं (रिपुदारण) दुःखी, निर्भागी और भिखारी जैसा वहाँ पास ही बैठा था। उस समय जब मेरे पिता नरवाहन ने विकसित कमलपत्र के समान विस्फारित नेत्रों से मेरी ओर देखा, तब उस समय मेरा पूर्वकाल का अन्तरग मित्र पुण्योदय जो शरीर से निर्बल हो गया था, कुछ स्फुरित हुआ, कुछ चलने-फिरने लगा और जोवन के कुछ लक्षण प्रकट किये । फलस्वरूप मेरे पिताजी ने निर्मल अन्तःकरण से जब मेरी तरफ देखा तब उन्हें मेरा मित्र पुण्योदय भी दृष्टिगोचर हुा । मुझे देखते ही मेरे पिताजी का मुझ पर स्नेह जागृत हुआ। उन्हें मन में मेरी पहले की बातें याद हो पाई। उन्हें लगा कि उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया इसीलिये मेरी ऐसी अधम स्थिति हुई है और मेरी इस स्थिति का कारण वे स्वयं हैं। उन्हें लगा कि स्वयं उन्होंने लड़के का तिरस्कार कर घर से बाहर निकाला, यह अच्छा नहीं किया । यदि स्वयं ने विषवृक्ष को भी पानी पिलाकर बढ़ाया है तो फिर उसे काट देना योग्य नहीं है। अभी तो अवसरानुसार मुझे रिपुदारण का सत्कार कर, उसका राज्याभिषेक कर पुत्र के प्रति पिता के कर्तव्य से उऋण होना चाहिये । मेरा उसके प्रति पूर्व में किये व्यवहार की यही शुद्धि है । अत: रिपुदारण का राज्याभिषेक कर दूं, ऐसा कर मैं कृतकृत्य बन कर निमल दीक्षा ग्रहण करुंगा। हे भद्र अगृहीतसंकेता ! उस समय मैं दोषों का पुञ्ज था, फिर भी मेरे पिताजी का मेरे प्रति इतना उदार होने का क्या कारण था, उसे तू समझ । सज्जन पुरुषों का मन मक्खन जैसा सुकोमल होता है, वह पश्चात्ताप के सम्पक से पिघल ही जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है । जिन प्राणियों के मन मैल-रहित हो गये हैं, उन्हें अपना स्फटिक जैसा शुद्ध आत्मा भी दोषपूर्ण लगता है और दूसरे लोग दोषों से भरे हुए हों तब भो वे उनको निर्मल लगते हैं। परोपकार करने में निरन्तर तत्पर महा बुद्धिशालो मनुष्य कभी किसी कारण से कटु शब्द बोल देते हैं या कटु व्यवहार कर भी देते हैं तो बाद में जब उन्हें अपना कर्म याद आता है तब उस पर विचार करने से उनके मन में पश्चात्ताप अवश्य होता है । [३६४-४०६]
उपर्युक्त विचार मन में आते ही पिताजी ने तुरन्त मुझे अपने पास बुलाया, अपनी गोद में बिठाया और उसी समय गद्गद् वाणी में विचक्षणाचार्य से प्रश्न किया- महाराज ! आप तो जगत में ज्ञानचक्षु वाले हैं, आप तो सब बात जानते हैं । यह रिपुदारण ऐसे उच्च कुल में जन्मा, उसे ऐसी सुन्दर सामग्री मिली, * पृष्ठ ४६३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org