Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ४ : श्रमणधर्म और गृहस्थधर्म
६२६ का कितना वर्णन करू ? संसार में बहत से पति-पत्नी देखे हैं पर मुझे इनके जैसा अकृत्रिम स्नेहमय दाम्यपत्य जीवन अन्य किसी स्थान पर दिखाई नहीं दिया।
[१८७-१८६] राजकुमार गृहिधर्म
वत्स ! वहाँ एक अन्य छोटा राजमार भी दिखाई दे रहा है, जिसका नाम गृहस्थधर्म है, जो श्रमणधर्म युवराज का सहोदर (छोटा) भाई है। इसके आसपास १२ व्यक्ति बैठे हैं जो जैनपुर में अत्यधिक आनन्द लीला करवा रहे हैं, उनका भी संक्षिप्त वर्णन तुम्हें सुनाता हूँ, वत्स ! तुम एकाग्रचित होकर सुनो।
१६०-१६२] १. यह प्रथम पुरुष स्थूल प्रारणातिपात विरमण व्रत कहलाता है जो सर्व प्रकार की स्थूल हिंसा का त्याग करने की आज्ञा देता है।
२. दूसरा पुरुष स्थूल मृषावाद विरमण व्रत है । यह जैनपुर के गृहस्थों को समस्त प्रकार के स्थूल (मोटे) असत्य भाषण से निवृत्त करता है।
३. तासरा पुरुष स्थूल अदत्तादान विरमरण व्रत है। यह जैनपुर निवासी गृहस्थों को स्थूलरूप से अन्य किसी भी प्रकार को वस्तु या पदार्थ का हरण (चोरी) करने से बचाता है।
४. चौथा पुरुष स्थल ब्रह्मचर्य विरमरण व्रत है । यह स्त्री को परपुरुष और पुरुष को परस्त्रीगमन से पराङ मुख करता है एवं स्व-पति और स्व-स्त्री में ही सन्तोष रखने का विधान करता है।
५. पाँचवां पुरुष स्थल परिग्रह परिमारण विरमरण व्रत है। यह गहस्थ को अपने अधीनस्थ नव प्रकार के बाह्य परिग्रह (धन, धान्य, खेत, मकान, चांदी, सोना, कुपद (तांबा, पीतल, लोहा आदि) द्विपद (दाम, दासो) और चतुष्पद (पशु) को परिमित (मर्यादित) करने का निर्देश देता है।
६. छठा परुष रात्रि भोजन का परित्याग करवाता है। समस्त दिशाविदिशाओं के गमनागमन को सीमित करवाता है और गृहस्थ को संवर (कर्मबन्धमार्ग का अवरोध) में स्थापित करता है।
७. सातवां पुरुष भोगोपभोग विरमरण व्रत है । यह उपभोग और परिभोगजन्य समस्त पदार्थों को सीमित करवाकर, अभक्ष्य पदार्थ भक्षण और असत व्यापार से रहित बनाकर सत्कार्यों का अनुष्ठान करवाता है।
८. यह आठवां पुरुष अनर्थदण्ड विरमरण व्रत है। यह जैनप्रवासी गृहस्थों को गृहस्थ के लिये आवश्यक साधन एवं प्रवृत्ति के अतिरिक्त समस्त अनर्थकारी प्रवृत्तियों का त्याग करवाता है। (छः, सात और आठवां पुरुष तीन गुण व्रतों के नाम से भी प्रसिद्ध हैं ।)
* पृष्ठ ४५१
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