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उपमिति भव-प्रपंच कथा
विषयों में प्रत्यासक्त रहते हैं। संतोष की यह पत्नी मनीषियों के मन को इन्द्रियजन्य विषयों पर से तृष्णा रहित बना देतो है, मन को इच्छारहित बना देती है और इन्द्रिय-विषयों के प्रति जीव का जो राग-द्वेष रहता है उससे नि:स्पृह कर देती है। अर्थात् चित्त को तृष्णा, राग-द्वेष और द्विधारहित बनाती है। किसी विषय में लाभ हो या न हो, सुख हो या दुःख हो, सुन्दर वस्तु मिले या दूषित मन पसन्द आहार मिले या नापसन्द, सर्व परिस्थितियों में यह निष्पिपासिता मन को सन्तुष्ट और स्थिर रखती है। [२५४-२५६]
निष्कर्ष
वत्स प्रकर्ष ! अब तू संकल्प-विकल्प को छोड़कर चारित्रधर्मराज को परमार्थ से सच्चा राजा समझ । उसके ज्येष्ठ पुत्र श्रमणधर्म और कनिष्ठ पुत्र गृहस्थधर्म हैं, सद्बोध महामन्त्री है जिसे राज्य का सब काम सौंप दिया गया है, सम्यक्दर्शन सेनापति है और संतोष तन्त्रपाल है, यह समझले । जैसे महामोह राजा और उसका परिवार तीनों लोक के लोगों को संताप देने वाले हैं वैसे हो चारित्रधर्मराज और उसका परिवार तीनों लोकों के समस्त प्राणियों को आह्लादित करने वाला है। वत्स ! चारित्रधर्मराज और उसका परिवार सम्पूर्ण जगत के लिये वास्तविक अवलम्बन हैं, जगत के सच्चे और परमार्थ से हित करने वाले तथ। सारे विश्व के पारमार्थिक बन्धु (वास्तविक मित्र) हैं। ये इस अनन्त संसार समुद्र से तैरा कर पार ले जाने वाले हैं और संसार को ऐसे अनन्त आनन्द समूह को प्राप्त करवाने वाले हैं जिसका कभी नाश नहीं होता। चारित्रधर्मराज के साथ जो अन्य नरेश्वर यहाँ दिखाई दे रहे हैं वे सब समस्त प्राणियों के सुख के कारण हैं । भाई ! चारित्रधर्मराज के अंगभूत निखिल बान्धवों के गुरग-स्वरूप का तेरे समक्ष वर्णन किया। तदुपरान्त वेदिका के पास मण्डप में जो शुभ-अशुभ प्रादि बैठे हए दिखाई दे रहे हैं वे सब चारित्रधर्मराज के सैनिक हैं। महाराजा चारित्रधर्मराज को आज्ञा से ये राजा प्राणियों से शोभन कार्य करवाते हैं, क्योंकि वे सभी स्वयं अमृतोपम हैं।
[२५७-२६६] भाई प्रकर्ष ! इन राजाओं के मध्य में सर्व प्राणियों को सुख देने वाले अनेक स्त्री-पुरुष और बच्चे हैं । के यह स्थान अनेक राजाओं और असख्य मनुष्यों से परिपूर्ण है, उनका सम्यक् प्रकार से पूर्ण वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है ? मैंने तुम्हारे समक्ष इस मण्डप और सभास्थान का संक्षिप्त वर्णन किया है । अब यदि तेरा कौतूहल पूर्ण हुआ हो तो हम द्वार की ओर चल अर्थात् यहाँ से चलें। [२६७-२६६]
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