Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ४ : चारित्रधर्मराज का परिवार
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चारित्रधर्मराज की सेना
प्रकर्ष ने भी अपनी यही इच्छा प्रकट को। वहाँ से बाहर निकलते हए उन्होंने चारित्रधर्मराज की चारों प्रकार की सेना का अवलोकन किया। इस चतुरंगी सेना में गम्भीरता, उदारता, शूर वीरता प्रादि थि हैं जिनके चलने से चारों दिशाएं घन-घनाहट ध्वनि से भर जाती हैं। कीति श्रेष्ठता, सज्जनता और प्रेम आदि बड़ेबड़े हाथी हैं जो विलास करते हुए अपने कण्ठ-निर्घोष से सारे भूवन को भर देते हैं। बुद्धि-विशालता, वाक्-चातुर्य, निपुणता आदि घोड़े अपनी हिन हिनाहट से उत्तम प्राणियों के कर्णरंध्रों को भर देते हैं । अचपलता, मन स्वता, दाक्षिण्य आदि योद्धामों से परिपूर्ण यह चतरंगी सेना विस्तृत अगाध शान्ति-समुद्र का भ्रम उत्पन्न करती है। इस चतुरगी सेना को देखकर प्रकर्ष मन में अत्यन्त आनन्दित हुआ । [२७०-२७५] प्रकर्ष का आभार-प्रदर्शन
यह सब देख कर प्रकर्ष ने मामा से कहा-मामा ! सचमुच अाज अापने मेरे इच्छित कौतूहल को पूरा कर दिया है और इस विश्व में जो कुछ भी देखने योग्य है वह सब आपने मुझे दिखा दिया है । आपने मुझे नाना प्रकार की अनेक घटनाओं से व्याप्त भवचक्र नगर बताया। महामोह आदि राजा अपनी शक्ति का प्रयोग कहाँ-कहाँ और कैसे करते हैं, यह बताया। यह मनोहर विवेक पर्वत बताया, पर्वत का आधारभूत सज्जन प्राणियों से परिपूर्ण सात्विक-मानसपुर नगर बताया, पर्वत का अप्रमत्तता शिखर बताया और उस पर बसा हुआ एवं मुनिपुंगवों से वेष्टित जैनपुर बताया। फिर आपने मुझे चित्त-समाधान मण्डप, निःस्हता वेदी और जोववोर्य सिंहासन बताया। साथ ही आपने चारित्रधर्मराज महाराज से पहचान कराई और अन्य सब राजाओं का वर्णन भी किया तब मुझ मालूम हुआ कि ये सभी राजा चारित्रधर्मराज के सेवक हैं । अन्त में आपने यह चतुरंगी सेना दिखाई । ये सब सुन्दर स्थान और व्यक्ति बताकर अपने कोई ऐसा विषय बाकी नहीं रखा जो मेरे जानने याग्य शेष रह गया हो । आज सच ही आपने मेरे पापों को धोकर मुझे निर्मल बना दिया, मुझ पर महान उपकार किया और पाप कृपालु ने उत्साहपूर्वक मेरे सब मनोरथ पूर्ण किये । मामा ! यह सुन्दर जैनपुर इतना रमणीय है कि इसमें कुछ दिन रहने की मेरी इच्छा हो रही है, क्योंकि जैसे-जैसे मैं सद्विचार पूर्वक आपके प्रभाव से इस नगर को देख रहा हूँ वैसे-वैसे मुझे लगता है कि मैं अधिक प्राज्ञ और मनीषी होता जा रहा हूँ। आपने मुझ पर असीम कृपा को हैं तो अब इसको चरम सीमा तक पहुँचाने की कृपा और करे । अभी अपने लौटने में दो माह का समय शेष है, अतः इस जैनपुर में रहने से बड़ा आनन्द पायगा, ऐसा मानकर आप भी मेरे साथ रहें, ऐसा मेरा नम्र अनुरोध । [२७६-२८६] * पृष्ठ ४५६
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