Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ४: श्रमणधर्म और गृहस्थधम
६२७ प्रिय है। संयम के आसपास १७ व्यक्ति बैठे हुए हैं वे जैनपुर में क्या-क्या प्रानन्द उत्पन्न करते हैं वह संक्षेप में बताता हूँ। इन १७ में से पहले के पांच प्रास्रवपिधान (आस्रव को ढंकने वाले) के नाम से प्रसिद्ध हैं। (इनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं:१. प्राणतिपात विरति, २. मृषावाद विरति, ३. अदत्तादान विर त, ४. मैथुन विरमण, और ५. परिग्रह विरति ।) उनके आगे जो ५ व्यक्ति बैठे हैं वे पंचेन्द्रियनिरोध के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे निम्न हैं-(स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द । जो इन पाँचों इन्द्रियों को दृढ़ता से वश में रखते हैं। उनके आगे जो चार व्यक्ति बैठे हैं वे क्रोध, मान, माया और लोभ को वश में रखते हैं और अन्तिम तीन व्यक्ति मन, वचन और काया के सर्व योगों को वश में रखते हैं। इस प्रकार संयम अपनी शक्ति से ५ प्रास्रवों को ढंक कर, मुनिवर्ग को शांति के बोध से पाकुलतारहित बना देता है, पाँच इन्द्रियों को वश में करवा कर उन्हें इच्छा/आकांक्षारहित स्थिति में सम्पूर्ण प्रकार से सन्तुष्ट बना देता है, कषाय के ताप को शान्त कराकर चित्त को ऐसा शीतल बना देता हैं कि उन्हें निर्वाण जैसे सुख की अनुभूति होने लगती है और योगों को वश में करवा कर मुनिपुंगवों को निश्चितरूप से अतिशय मनोहारी बना देता है। मुनिपुंगव इस संयम को निरन्तर धारण करते हैं और यह संयम अपने वीर्य/शक्ति से इन श्रमणों को धैर्य-समुद्र में निमग्न कर देता है । अथवा संक्षेप में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा दो, तीन, चार और पांच इन्द्रिय वाले सर्व प्राणियों की मन, वचन, काया से किसी भी प्रकार की प्रारम्भ आदि की हिंसा करने. करवाने और अनुमोदन करने का यह सर्वथा निषेध करता है । इसके अतिरिक्त यह संयम जीवरहित पुस्तकादि वस्तुओं का भी यत्न पूर्वक प्रतिलेखन, प्रमार्जन का और बीज, वनस्पति या किसी भी प्रकार के जीव-जन्तुरहित स्थान को सोने-बैठने एवं चलने के लिये यत्नपूर्वक प्रमार्जित करने का उपदेश देता है। स्थण्डिल भूमि (शौच भूमि) को प्रेक्षण करने का निर्देश देता है। प्रारम्भ प्रास्रव कारी गृहस्थों की उपेक्षा करना, उनको प्रारम्भजन्य कार्यों में प्रेरित न करना, प्रयोग में आने वाली भूमि का प्रमार्जन करना, प्रासन, शयन, वस्त्र-पात्रादि का प्रतिलेखन /परिमार्जन करना, अशुद्ध अथवा अनुपयोगी वस्तु का विधिपूर्वक परिष्ठापन (त्याग) करना, मन को शुद्ध धर्म कार्यों में प्रवृत्त करना. शुभ भाषा का प्रयोग करना और उपयोग पूर्वक शरीर की प्रवृत्ति करने का भी यह संयम निर्देश देता है। जिन मुनियों ने संसार के कार्य छोड़ दिये हैं और जो सर्वदा सुसमाहित एक समान शान्त) अवस्था में रहते हैं, उनसे यह संयम उपरोक्त सुन्दर कार्य करवाता है । श्रमणधर्म युवराज के छठे सहचारी संयम का वर्णन करने के पश्चात् अब बाकी के चारों का भी संक्षेप में वर्णन करता हूँ, सुनो । [१६८-१७८]
७. सत्य-वत्स प्रकर्ष ! युवराज के पास जो सातवां अत्यधिक सुन्दर पुरुष-श्रेष्ठ दिखाई दे रहा है वह यतिधर्म के परिवार में सत्य के नाम से प्रसिद्ध है। यह प्राणियों को प्राज्ञा देता है कि तुम्हें जो कुछ कहना हो वह अन्य व्यक्तियों के
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