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प्रस्ताव ४ : सात्विक-मानसपुर और चित्त समाधान मण्डप
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विष के समान लगते हैं । उन्हें इन भोगों में किसी प्रकार का रस या प्रानन्द नहीं मिलता। उनका मन ऐसे भोगों पर तनिक भी प्रासक्त नहीं होता जिससे उन्होंने जो कर्म पहले एकत्रित किये थे उनका भी क्षय होता जाता है । अत: कर्मरूपी मैल से रहित होकर निर्मल बनकर भवचक्रपुर से पराङमुख होकर ही वे इस संसार में रहते हैं । जिन भाग्यवान प्राणियों के मन में यह निःस्पृहता वेदो बस गई है उन्हें फिर देवता तो क्या इन्द्र की भी आवश्यकता नहीं रहती । राजा की चापलूसी या किसी अन्य के सहयोग की भी अपेक्षा नहीं रहती । विधाता ने इस वेदी का निर्माण भी इन श्रेष्ठतम महाराजा के बैठने के लिये ही किया है । [८०-८४ ] जीववीर्य सिंहासन
भाई प्रकर्ष ! इसी प्रकार निःस्पृहता वेदी पर जो जीववीर्य नामक सिंहासन रखा है, उसके बारे में बताता हूँ । जिन प्राणियों के मन में जीववीर्य की स्फुरणा होती है उन्हें सुख का ही अनुभव होता है । फिर उन्हें दुःख में पड़ने का कोई प्रसंग नहीं रहता । इस सिंहासन पर बैठे ये राजा अत्यन्त देदीप्यमान और तेजस्वी शरीर वाले हैं । इनके चार सुन्दर मुख (चतुर्मुख) दिखाई दे रहे हैं । ये सकल-जगत् के बन्धु हैं और सब को अत्यन्त आनन्द देने वाले हैं । इन राजाओं का जो पवित्रतम परिवार दिखाई देता है और जो यह महान राज्य, सम्पत्ति, महत्त्व और अतुल तेज दिखाई देता है, उन सब का कारण यह सिंहासन ही है । अधिक क्या कहूँ ! संक्षेप में, सात्विक - मानसपुर, यहाँ के निवासी, विवेक पर्वत, श्रप्रमत्तत्व शिखर, जैनपुर, वहाँ के निवासी, यह मण्डप, वेदो और अपनी सेना के साथ ये महान राजा यहाँ दिखाई देते हैं तथा समस्त लोक में सब से सुन्दर आनन्दमय मनोराज्य यहाँ दिखाई देता है वह सब इस सिंहासन का हो प्रताप है । यदि यह जीववीर्य सिंहासन यहाँ न हो तो पूरे मण्डप पर अप्रशस्त महामोहादि राजा चढ़ाई कर देंगे और देखते ही देखते सब को पराजित कर देंगे । किन्तु मण्डप में इस सिंहासन की स्थापना होने से अप्रशस्त मोहादि राजा इस मण्डप में घुस भी नहीं सकते । वत्स प्रकर्ष ! यदि किसी समय महामोहादि राजा इस सेना का तिरस्कार करें तो जीववीर्य के प्रभाव से ये अपनी शक्ति द्वारा अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित कर लेते हैं । जब तक यह सिंहासन यहाँ प्रकाशित है, तभी तक वह सर्वतोभद्र (चार द्वार वाला) चित्त समाधान मण्डप, सिंहासन पर विराजमान राजा, उसकी सेना, विवेकगिरि और जैनपुर दिखाई देते हैं, अर्थात् ये सभी इस सिंहासन के प्रभाव से प्रभावित हैं । भाई प्रकर्ष ! इस प्रकार तेरे सन्मुख इस जीववीर्य सिंहासन के स्वरूप का वर्णन किया, अब मैं इस सिंहासन पर बैठने वाले राजा और उसके परिवार का वर्णन करता हूँ । [ ८५-६५] प्रकर्ष का तत्त्वचिन्तन
प्रकर्ष ने अपने मन में विचार किया कि मामा ने जो वर्णन किया इसका भावार्थ (रहस्य) मेरे मन में इस प्रकार स्फुरित होता है । सर्व प्रथम सात्विक* पृष्ठ ४४५
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