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प्रस्ताव ४ : सात्विक-मानसपुर और चित्त-समाधान मण्डप
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जैनपुर के निवासी
वत्स ! इस प्रकार जैनपुर के स्वरूप का संक्षेप में वर्णन करने के पश्चात् अब मैं जैनपुर के निवासी कैसे हैं, यह बताता हूँ, इसे तू लक्ष्य में रखले । इस नगर के निवासी सज्जन लोग निरन्तर आनन्द में रहते हैं, सब प्रकार की बाधा-पीड़ा से रहित होते हैं, इसका कारण इस नगर का प्रभाव ही है। यहाँ के समस्त निवासियों ने निवृत्ति-नगर (मोक्ष) जाने का दृढ़ निश्चय कर रखा है और वे उसके लिये निरन्तर प्रयारण करते रहते हैं। बीच-बीच में कहीं-कहीं पर रुक भी जाते हैं। ऐसे विश्राम के समय में वे विबुधालय में निवास करते हैं (किन्तु ज्ञानयुक्त होने से वहाँ भी वे मोक्ष के मार्ग को सरल करते जाते हैं ।) इन लोगों के भी महामोह आदि शत्रु तो होते ही हैं पर उनकी शक्ति, बल और धीरज को देखकर वे भय से दूर भाग जाते हैं और इनसे दूर-दूर ही फिरा रहा करते हैं। [६४-६७]
प्रकर्ष मामा ! जैसा आप कह रहे हैं वैसा मुझे तो कुछ लगता नहीं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैसे भवचक्र के लोग महामोह आदि में आसक्त दिखाई देते हैं वैसे ही जैनपुर के निवासी भी महामोह आदि प्रान्तरिक शत्रों में आसक्त दिखाई देते हैं। क्योंकि, ये भी सभी काय करते हुए दिखाई दे रहे हैं. जैसे कि भवचक्र के निवासी करते हैं। जैसे-जैन लोग भगवान् की मूर्ति पर
आसक्त (श्रद्धायुक्त) होते हैं। स्वाध्याय पर अनुरक्त होते हैं । स्वधर्मी-बन्धुओं पर स्नेह रखते हैं । धर्मानुष्ठान कर प्रसन्न होते हैं । गुरु-महाराज को देखकर संतोष प्राप्त करते हैं । सदर्थ (ज्ञान) प्राप्ति से हर्षित होते हैं। अपने व्रतों में दोष लगने पर उन दोषों के प्रति द्वेष करते हैं। समाचारी (धर्मशास्त्र की मर्यादा) का लोप करने वाले पर क्रोध करते हैं। शास्त्र का विरोध करने वाले पर रोष करते हैं। अपने कर्मों की निर्जरा होने पर गर्व करते हैं। अपनी ली हुई प्रतिज्ञाओं का * निर्वाह होने पर अभिमान करते हैं । परिषहों पर स्वयं की साध्य-प्राप्ति का आधार रखते हैं। देवकृत उपद्रव होने पर वे उस पर हँसते हैं। जिन-शासन की हीनता को छिपा लेते हैं। स्वयं की धर्त इन्द्रियों को ठगते हैं (उन्हें प्रात्मद्रोह के मार्ग पर जाने से रोक कर आत्म-साधना के मार्ग में जोड़ते हैं ।) तपस्या और चारित्र-पालन का लालच रखते हैं। महापुरुषों की सेवा-शुश्रूषा करने में तल्लीन रहते हैं। प्रशस्त ध्यानयोग की अच्छी तरह रक्षा करते हैं । परोपकार करने की तृष्णा रखते हैं। प्रमाद रूपी चोरों का नाश करते हैं। भवचक्र भ्रमण से घबराते हैं। कुमार्ग से घृणा करते हैं। निर्वृत्ति-नगर के मार्ग की ओर रमण करते है । विषयजन्य सुख-भोगों की हंसी करते हैं । प्राचार की शिथिलता को देखकर उद्वग प्राप्त करते हैं । भूतकाल में अपने द्वारा प्राचरित असद् आचरण को याद कर शोक करते हैं। अपने उत्तम चारित्र में भूल होने पर अपने को धिक्कारते हैं। भवचक्रवास की निन्दा करते हैं। तीर्थ कर
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