Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ४ : चारित्रधर्मराज
। शरण नहीं देता, कृत-कर्मों को स्वयं ही भोगना पड़ता है (अशरणभाव) । यह प्राणी
संसार-समुद्र में अकेला ही पाया है और अकेला ही जायगा, न उसका कोई है और न वह किसी का है (एकत्वभाव)। इस संसार में शरीर, धन, धान्य आदि वस्तुएं जो प्राणी को बांधकर रखती हैं वे सब बाह्य पदार्थ उससे भिन्न हैं, उनके साथ उसका कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है (अन्यत्वभाव)। यह शरीर मल, मूत्र, आन्तडियां खून, मांस, चबी आदि दुर्गन्धपूर्ण पदार्थों से आछन्न है, घृणाकारक है। ऐसे शरीर में से नाममात्र भी पवित्रता की गन्ध प्राप्त हो ऐसा संभव नहीं है (अशुचिभाव)। इस संसार में एक जन्म की स्त्री अन्य जन्म में माता भी बन जाती है और पिता पुत्र भी बन जाता है, यह जन्म-मरण का चक्र चलता ही रहता है (संसारभाव) । मन, वचन, काया के अशुभ योगों की प्रवृत्ति से और पापस्थानकों के आचरण से प्राणी निरन्तर आस्रव (कर्म ग्रहण) करता रहता है और कर्म बन्ध से भारी होता जाता है (प्रास्रवभाव। कोई कोई प्राणी कर्म से छुटकारा पाने के विचार से सदाचार (श्रमणधर्म, शुद्ध भावना, परिषह, अष्ट प्रवचन माता आदि) द्वारा आते हुए कर्मों को रोकता है (संवर भाव) । बारह प्रकार के तप द्वारा निरन्तर कर्मों की निर्जरा करता है जिससे पूर्व में बांधे हुए कर्म भोगे बिना भी प्रात्म-प्रदेश से अलग हो जाते हैं (निर्जराभाव) । प्राणी इस संसार में समस्त स्थानों पर जन्म और मृत्यु प्राप्त कर चुका है और संसार में विद्यमान समस्त रूपी द्रव्यों को एक या दूसरे रूप में भोग चक़ा है, फिर भी वह संसार भ्रमण से नहीं थकता, खाते-खाते नहीं अघाता, यह संसार उसे कडुपा नहीं लगता (लोकस्वभावत्वभाव)। संसार समुद्र को पार करने के लिये तीर्थ करों द्वारा प्ररूपित स्याद्वाद शैली युक्त जैनधर्म ही वास्तव में शक्तिमान है (धर्मभाव) । परन्तु, संसार-चक्र में प्राणी को इस सर्वज्ञ-दर्शन-धर्म-प्राप्ति की सामग्री बहुत कठिनाई से प्राप्त होती है, मिल भी जाय तो उसको पहचानना दुष्कर है और पहचान भी ले तो उसे स्वीकार करना एव उसका अनुष्ठान/आचरण करना और भी कठिन है (बोधिदुर्लभ भाव)। जो श्रद्धावान विशुद्ध बुद्धिशाली प्राणी इस भावमुख को आज्ञानुसार ऐसी और इसके समान अन्य भावनाएं धारण करते हैं वे वास्तव में भाग्यशाली मनस्वी और मनीषी है । भैया! चारित्रधर्मराज का यह चौथा मुख बहुत सुन्दर एवं दर्शनीय है । इसके दर्शन से अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है और स्वभाव से भी यह मुख सब को अपूर्व सुख प्रदान करने वाला है।
[१२६-१३६]
भाई प्रकर्ष ! महाराजा चारित्र-धर्मराज इस प्रकार अपने चारों मुखों से सभी नगरवासियों को असीम सुख प्रदान करते हैं। ये महाराजा संसार में भटकने वाले सभी प्राणियों को निरन्तर सुख देने वाले ही हैं, क्योंकि जो स्वयं अमृत हो वह दूसरों को दुःख देने वाला कैसे हो सकता है ? (पाश्चर्य की बात तो यह है कि संसार-चक्र में रहने वाले प्राणियों में से अत्यल्प प्राणी ही इनके स्वरूप को पहचानते हैं और उस
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