Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
६०६
उपाति-भव-प्रपंच कथा
अथवा लिंग ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ और छठा मन। इन ११ इन्द्रियों में अहंकार के प्रभाव से जब तमोगुण की अधिकता होती है तब पांच तन्मात्रा उत्पन्न होती है, जिनके लक्षण हैं :- स्पर्श, रस, रूप, गन्ध और शब्द । इन ५ तन्मात्रा से पृथ्वी, पानी, तेज, वायु और आकाश इन ५ महाभूतों को उत्पत्ति होती है ।।
इस प्रकार प्रधान, बुद्धि, अहंकार, ११ इन्द्रियाँ, ५ तन्मात्रा और ५ महाभूत मिलाकर २४ तत्त्व वाली प्रकृति है। इनसे भिन्न चैतन्य स्वरूप २५वां तत्त्व पुरुष है । जन्म-मरण के नियम से बद्ध होने के कारण और धर्म आदि भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रवृत्ति करने वाला होने से यह पुरुष अनेक प्रकार का है। शब्द आदि के उपभोग के लिये पुरुष और प्रकृति का संयोग अन्ध और पंगु के संयोग के समान है। शब्दादि की प्राप्ति होना अर्थात् गुरण और पुरुष का आन्तरिक मिलन उपभोग है। इस दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम को प्रमाण माना गया है । यह सांख्य दर्शन का संक्षिप्त स्वरूप है । ४. बौद्ध-दर्शन
भाई प्रकर्ष ! बौद्धों ने निर्वति मार्ग की कल्पना इस प्रकार की है। वे कहते हैं कि ५ इन्द्रियाँ, शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, मन और धर्म ये (२ प्रकार के आयतन हैं । धर्म अर्थात् सुख-दुःख आदि का प्रायतन (घर) यानि शरीर है । वे प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रकार का प्रमाण मानते हैं । यह बौद्ध दर्शन का सारांश है।
बौद्धों की वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक इस प्रकार चार शाखायें हैं।
वैभाषिकों की मान्यता है :-पदार्थ क्षणिक है, क्योंकि जैसे जन्म उत्पन्न करता है, स्थिति स्थापन करता है, जरा जर्जरित करती है और विनाश नाश करता है वैसे ही आत्मा भी इसी के समान क्षणिक है। इसी कारण आत्मा भी पुद्गल कहलाती है।
सौत्रान्तिकों की मान्यता है :-समस्त शरीरधारियों में रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार ये पांच स्कन्ध विद्यमान हैं। वे आत्मा नामक किसी पदार्थ को नहीं मानते । स्कन्ध ही परलोक में जाते हैं, समस्त संस्कार तो क्षणिक हैं, स्वलक्षण ही परमार्थ है और अन्य पदार्थों की व्यावृत्ति शब्दार्थ है । नैरात्म्य भावना से ज्ञान-संतान का उच्छेद ही मोक्ष है।
__ योगाचार की मान्यता है :-यह संसार ही विज्ञान है, इसके अतिरिक्त कोई बाह्य पदार्थ नहीं है । एक अद्वत ज्ञान ही तत्त्व है जिसकी अनेक संतानें हैं। वासना के परिपाक से नीला-पीला आदि प्रतिभासित होता है। प्रालय-विज्ञान ही समग्र वासनाओं का अाधारभूत है और प्रालय-विज्ञान की विशुद्धि ही अपवर्ग या मोक्ष है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org