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प्रस्ताव ४ : षट् दर्शनों के निर्वृत्ति-मार्ग
६०३ इच्छा रखता हूँ। मुझे यह बात सुनने का अत्यधिक कौतूहल है, अतः आप अनुग्रह कर मुझे बताइये । [६७-६८]
विमर्श--वत्स ! यदि तेरी ऐसी इच्छा है तो प्रत्येक दर्शनकार ने निर्वृत्ति के कैसे-कैसे मार्ग बताये हैं, तुझे स्पष्टता पूर्वक सुनाता हूँ, ध्यान पूर्वक सुन । [६६]
३१. षट् दर्शनों के निवति-मार्ग १. नैयायिक दर्शन
भाई प्रकर्ष ! नैयायिकों ने निर्वत्ति-मार्ग की कल्पना में १६ तत्त्व माने हैं। वे हैं- १. प्रमाण, २. प्रमेय, ३. संशय, ४. प्रयोजन, ५. दृष्टान्त, ६. सिद्धान्त, ७. अवयव, ८. तर्क, ६. निर्णय, १०. वाद. ११. जल्प, १२. वितण्डा, १३. हेत्वाभास, १४. छल, १५. जाति और १६. निग्रहस्थान । इन १६ तत्त्वों के ज्ञान से वे मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं । इनके लक्षरण इस प्रकार हैं :
१. प्रमारण:--पदार्थ के ज्ञान के कारण को प्रमाण कहते हैं । यह प्रमाण चार प्रकार का है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । इन्द्रिय और पदार्थों के सन्निकर्ष (सम्बन्ध) से उत्पन्न होने वाला, वचन द्वारा अकथ्य और व्यभिचार दोष से रहित निश्चयात्मक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। प्रत्यक्ष पूर्वक उत्पन्न होने वाला ज्ञान अनुमान कहलाता है। अनुमान के तीन भेद हैं- पूर्ववत्, शेषवत्, सामान्यतोष्ट । कारण से कार्य का अनुमान करना । जैसे आकाश में बादलों को देखकर वर्षा होने का अनुमान करना पूर्ववत् अनुमान कहलाता है। कार्य से कारण का अनुमान करना, जैसे नदी के पूर को देखकर अत्यधिक वर्षा हुई है ऐसा अनुमान करना शेषवत् मनुमान कहलाता है । जैसे देवदत्त आदि गति करने (चलने) से देशान्तर में जाते हैं वैसे सूर्य भी गति पूर्वक ही देशान्तर को प्राप्त करता है ऐसा अनुमान करना सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहलाता है। प्रसिद्ध वस्तु के साधर्म्य से अप्रसिद्ध वस्तु का साधन करना उपमान कहा जाता है, यथा-जैसी गाय होती है वैसा ही बैल होता है । आप्त पुरुषों का उपदेश शब्द कहलाता है। इस प्रकार चार प्रकार का प्रमाण कहा गया है।
२. प्रमेय :-१२ प्रकार का है :-१. प्रात्मा, २. शरीर, ३. इन्द्रिय, ४. अर्थ, ५. बुद्धि, ६. मन, ७, प्रवृत्ति ८. दोष, ६. प्रेत्यभाव, १०. फल, ११. दुःख, १२. अपवर्ग।
३. संशय :-यह क्या होगा? यह स्तम्भ है या पुरुष ? ऐसा सन्देह जहाँ हो उसे संशय कहते हैं।
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