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२६. राक्षसी दौर और निवृत्ति
प्रकर्ष ने सप्त पिशाचिनों के विषय में विस्तार से सुना, उनको प्रेरणा करने वाले और उनके आन्तरिक बल को पहचाना तथा उनके विरोधी तत्त्वों पर हृदय में विचारणा की। मामा के वर्णन पूरा करते ही भाणेज ने उस पर विस्तृत चर्चा चलाई और वस्तु-स्वभाव को भली-भांति स्पष्ट करवाया। ये स्पष्टीकरण विशेष ध्यान देने योग्य हैं।] पिशाचिनियों का अस्खलित वेग और प्रतिकार को अशक्यता
प्रकर्ष मामा ! ये पिशाचिनें भवचक्र नगर के लोगों को इतनी अधिक पीड़ा देती हैं, तो क्या यहाँ राजा, लोकपाल या कोटवाल नहीं हैं ? वे इन्हें रोक नहीं सकते ? यदि रोक सकते हैं तो फिर वे क्यों चुप बैठे हैं ?
विमर्श - भाई प्रकर्ष ! राजा अादि कोई भी इन पिशाचिनों को रोकने में समर्थ नहीं है। किसी में इतनी शक्ति क्यों नहीं है इसका कारण भी बताता हूँ। इस भवचक्र नगर में कितने ही महापराक्रमी राजा हैं, उन पर भी ये पिशाचिनें बलपूर्वक अपना प्रभूत्व स्थापित कर सकती हैं। ये सातों इतनी बलवान हैं कि सर्वत्र व्याप्त हैं और स्वेच्छानुसार विचरण करती हुई उद्दाम लीला करती हैं। जैसे मदमस्त भयंकर हाथी को पकड़ने के लिए योद्धा नहीं मिल सकता वैसे ही इन सातों को अंकुश में लेने में त्रैलोक्य में भी कोई समर्थ नहीं हो सकता । अपने प्रयोजन (कार्य)को पूरा करने में अत्यन्त शक्तिशाली और सर्वत्र निरंकुश घूमने वाली इन पिशाचिनों को रोकने की त्रिभूवन में किसमें सामर्थ्य है ? [२६५-२६८]
प्रकर्ष-मामा ! तब क्या किसी भी प्राणी को इन राक्षसनियों को हराने का कुछ भी प्रयत्न नहीं करना चाहिये ?
विमर्श- वत्स ! निश्चय से यदि वास्तविकता को समझा जाय तो प्रयत्न करना व्यर्थ ही है। क्योंकि यदि इन पिशाचिनों का प्रभत्व किसी प्राणी पर होना अवश्यम्भावी (अवश्य ही निर्मित) है तो उसे रोकने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। जिस कार्य को करने में सफलता प्राप्त न हो सकती हो उसे कोई विचारशील व्यक्ति क्यों करेगा ? जब कर्मपरिणाम, कालपरिणति, स्वभाव, लोकस्थिति और भवितव्यता प्रादि सम्पूर्ण कारण-सामग्री के बल पर ये पिशाचिनें प्रवर्तित होती हैं और जब अवश्यम्भावी समस्त निमित्त एकत्रित हो जाते हैं तब इन्हें या ऐसे ही अन्य कार्यों को रोकने का मनुष्य चाहे कितना ही प्रयत्न करे वह उन्हें रोकने में समर्थ नहीं हो सकता । प्रयत्न के अतिरिक्त उसे किसी भी फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। * पृष्ठ ४२६
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