Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ४: चार उप-नगर
५८१ यहाँ के निवासियों में भी ये सब अन्तरंग के लोग घर जमा कर बैठे हुए हैं और जब भी अवसर मिलता है वे अपनी शक्ति का पूर्ण प्रदर्शन किये बिना नहीं रहते।
[६४-६५] प्रकर्ष - मामा ! जब ऐसा ही है तब यहाँ भी सुख कैसा? आपने यहाँ के निवासियों में जो अतिशय सुख का वर्णन किया, वह फिर कैसे घटित होता है ?
[९६] विमर्श-वत्स ! तेरा प्रश्न पूर्णतया युक्तिसंगत है। वास्तव में तो ये लोग जिसे सुख मानते हैं वह वस्तुतत्त्व के परमार्थ से सुख नहीं है । तत्त्वदृष्टि से तो विबुधालय कोई प्रशस्त एवं सुन्दर भी नहीं है। परन्तु, विषयाभिलाषा में ही जीवन की परिसमाप्ति मानने वाले, स्थूल सुख को ही जीवन का साध्य समझने वाले मुग्ध बुद्धिवाले जो लोग हैं उन्हें तो इस विबुधालय के सुख उच्च कोटि के ही प्रतीत होते हैं तथा वे यह मानते हैं कि उन्हें यह स्थिति बड़े भाग्य से प्राप्त हुई है, अतः उनकी दृष्टि से ही मैंने उपरोक्त वर्णन किया है । अन्यथा तो जहाँ महामोह अपने परिवार के साथ राज्य कर रहा हो, वहाँ बाह्य जगत के प्राणियों के लिए सच्चे सुख की तो बात ही क्या ? मोह और सच्चे सुख का संयोग तो अशक्य है, अर्थात् जहाँ मोह राजा के परिवार का एक भी व्यक्ति राज्य करता हो, वहाँ सच्चे सुख की तो एक किरण भी नहीं आ सकती। इसके कारण भी मैं तुझे पहले बता चुका हूँ। यहाँ जो प्रानन्द दिखाई दे रहा है वह स्थूल, ऊपर-ऊपर का ओर वास्तविक सुख-रहित है । वास्तव में तो इसमें कुछ भी तथ्य नहीं है और न इसे सुख का नाम ही दिया जा सकता है। इस प्रकार मैंने तेरे सन्मुख विबुधालय का संक्षेप में वर्णन किया। अब मैं पशुसंस्थान का वर्णन करता हूँ, तू ध्यान पूर्वक सुन । [६७-१००] ३. पशुसंस्थान
तीसरा उप-नगर पशुसंस्थान है जिसमें रहने वाले प्राणी निरन्तर भूख से पीड़ित रहते है, परति और अनेक संतापों से, तृषा से, वेदना से दुःखो एवं त्रस्त रहते हैं। उनको अनेक बार तप्त लोह-शलाका से दग्ध किया जाता है, समय पर याहार और पानी नहीं मिलता, सर्वदा शोक और भय से उद्विग्न रहते हैं। अनेक बार बांधे जाते हैं, उन पर अधिक भार लादा जाता है और ऊपर से मार पड़ती है। पशुसंस्थान के निवासी सदा दुःख में ही रहते हैं और महामोह आदि उन्हें अनेक प्रकार से दुःख तथा त्रास देते रहते हैं । वे एकदम दोन, गरीब, अनाथ जैसे लगते हैं, पर उन्हें कोई शरण (प्राश्रय) भी नहीं मिलता। उनमें धर्म-अधर्म, कर्त्तव्य-अकर्तव्य का किञ्चित् भी विवेक नहीं होता, अर्थात् विचार-विकल होते हैं। वे क्लेशमय जीवन जीते हैं। इस नगर के निवासियों को अनन्त जातियाँ हैं, इतनी अधिक कि
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