Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
सुस्वादु लगने वाली भिन्न-भिन्न प्रकार की मदिरा की गन्ध से इस कदम्ब वन का वातावरण मद से गमगमा रहा है। [४-६]
भाई प्रकर्ष! देखो, इस सुरा-पान गोष्ठि से लोग कैसे उल्लसित हो रहे हैं । लोग मस्ती में एक दूसरे के पैरों में पड़ रहे हैं, इधर-उधर लोट रहे हैं, सुरापान कर रहे हैं, गा रहे हैं, स्त्रियों के मुख-कमल को चूम रहे हैं, अनेक प्रकार की केलिक्रीडा और विचित्र चेष्टायें कर रहे हैं। परस्पर एक दूसरे से भद्दी मजाक कर रहे हैं, बोलते-बोलते मद (मस्ती) में ताल देते हए नाच रहे हैं। कुछ भूलुण्ठित हैं. कुछ मद्य के नशे में चूर्णित आँखें नचा-नचा कर मृदंग और बांसुरी की ध्वनि से अपना विकार प्रदर्शित कर रहे हैं, कुछ अपने धनाढ्य बड़ेरों के घमण से धन बांट रहे हैं
और कुछ बिना कारण ही शिथिल कदमों से इधर-उधर चहल कदमी कर (डोल) रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो सभी आनन्द की मस्ती में इतने डूब गये हैं कि अन्य किसी बात की चिन्ता ही न हो। [७-१०]
विमर्श अपने भारगजे के समक्ष जब उपरोक्त सुरापान गोष्ठि की ओर इंगित कर वर्णन कर रहा था, तभी इतनी देर तक कमल पत्रों पर अटकी हुई प्रकर्ष की दृष्टि मोगरा और बेला के पुष्पों से सज्जित मण्डप पर पड़ी और वह वोल पड़ा-मामा ! इस मण्डप की सुरा-पान गोष्ठि तो, पूर्व दशित गोष्ठि से भी अधिक विलास-मग्न है।
विमर्श- वसन्त ऋतु के निकट आने पर प्रमुदित नगर-निवास ऐसी अनेक सुरापन गोष्ठियाँ इस भवचक्र नगर में स्थान-स्थान पर करते हैं ।* चम्पावक्ष की पंक्तियों में, द्राक्षालता-मण्डपों में, सेवती वृक्ष के गहन वन-विभागों में, मोगरे की झाड़ियों के समूह में, रक्त अशोक वृक्षों की घंटानों में, बकुल वृक्षों के गहन भागों में, जिधर भी तू दृष्टि घुमायेगा उधर ही तुझे विलास करतो उद्दाम कामिनी वन्द से परिवेष्टित धनवान नागरिकों द्वारा आयोजित मदिरा-पान गोष्ठियां दृष्टिगोचर होंगी। नगर से बाहर के उद्यानों में तुझे एक भी ऐसा स्थान नहीं दिखाई देगा, जहाँ मद्य-पान न हो रहा हो। यदि तुझे एक भी ऐसा स्थान मिल जाय तो तू मेरी बात पर विश्वास मत करना। शायद तुझे ऐसा लग रहा होगा कि मैं यों ही बहुत बढा-चढा कर बात कर रहा हूँ, या तुझे झांसा दे रहा हूँ. पर ऐसी बात नहीं है।
प्रकर्ष-मामा ! आपके कथन में सन्देह की कोई गुंजाइश ही नहीं है। यहाँ रह कर ही मैं प्रायः कर सभी वन प्रदेश आपके कथनानुसार ही देख रहा हूँ। देखिये मामा ! वे उद्यान और वन विविध प्रकार के मद्यपान से मदमस्त लोगों की आवाजों, शृगार-चेष्टाओं और उल्लसित अानन्द ध्वनि से गुजरित हो रहे हैं । इतना ही नहीं अपितु
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