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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
बाढ़ से डरते हैं, अग्नि से भय खाते हैं, डाकुओं से भयभीत रहते हैं, राजा द्वारा लूटे जाने से प्राशंकित रहते हैं, भाइयों और रिश्तेदारों द्वारा हिस्सा पड़वाने की पंचायत से उद्विग्न रहते हैं और चोर द्वारा चुराये जाने के भय से त्रस्त रहते हैं। इस प्रकार धन से अनेक प्रकार की व्याधियां आती हैं और अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। हे वत्स ! जैसे पवन के एक प्रखर झपाटे से बहुत से एकत्रित बादल बिखर जाते हैं वैसे ही जब धन जाने लगता है। [6-१६] तब न तो वह धनवान के रूप को देखता है, न उसके साथ के लम्बे काल के सम्बन्ध और पहचान की अपेक्षा रखता है, न उसकी कूलीनता को देखता है, न कुलक्रम का अनुसरण करता है, न शील, पांडित्य, सुन्दरता, धर्म-परायणता, दानशीलता, उपकार-वृत्ति या कर्तव्य-परायणता का ही विचार करता है । उसके ज्ञान, सदाचार, सुन्दर व्यवहार, चिर स्नेहभाव और सत्त्व पराक्रम को भी वह स्वीकार नहीं करता । प्राणी के शरीर के लक्षण कितने उत्तम हैं, इसकी भी वह पहचान नहीं करता। अधिक क्या ? आकाश में दिखने वाले नगर, मनुष्य, हाथी. घोड़े आदि जैसे क्षण भर में छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, वैसे ही धन लुप्त हो जाता है। वह कहाँ गया और कितने थोड़े समय में गया, इसका पता ही नहीं लगता । संसारी प्राणी घोर क्लेश कष्ट सहन कर धन एकत्रित करता है और अपने प्राणों की तरह उसका रक्षण करता है, फिर भी जब वह जाने लगता है तब देखते. देखते ऐसे चला जाता है जैसे मञ्च पर नृत्य करता नर्तक नाचते-नाचते एकाएक अदृश्य हो जाता है । तथापि हे भद्र ! महामोहनसित बेचारे क्षुद्र प्राणी इस धन की चिन्ता और प्राशा से प्राबद्ध होकर, इस महेश्वर सेठ की भांति धन के झूठे गर्व में पड़कर सैकड़ों प्रकार के विकारों में फंस जाते हैं और उनका चित्त विह्वल एवं व्यथित हो जाता है । भाई ! इस जन्म में धन से ऐसा ही भयावह परिणाम प्राप्त होता है और परलोक में तो इससे भो महाभयंकर दुःख-परम्परा प्राप्त होती है, ऐसा समझना चाहिये । [१-५]
प्रकर्ष --मामा ! मुझे बताओ कि धन एक ही स्थान पर निश्चल होकर रह सके, इसका विपाक (परिणाम) शुभ हो और इसका फल भी कल्याणकारी हो, इसका भी कोई उपाय इस विश्व में है या नहीं ?
विमर्श-वत्स ! * इस संसार में ऐसा उपाय सम्भव तो अवश्य है, पर वह विरले भाग्यशाली को ही प्राप्त होता है । इसे पुण्यानुबन्धी पुण्य कहते हैं । पुण्य अर्थात् शुभ का अनुभव, ऐसे अनुभव के समय फिर से पुण्य का बन्ध हो, पूण्य का संचय हो उसे पुण्यानुबन्धी पुण्य कहते हैं । ऐसा पुण्य धन को बढ़ाता है, स्थिर करता है, और धन न हो तो प्राप्त करवाता है। परन्तु इस प्रकार का पुण्य अत्यन्त ही दूलभ है। (अधिकांश प्राणियों को पापानुबन्धी पुण्य ही होता है यह ध्यान में रखना ।) प्राणियों पर दया, संसार से वैराग्य (विरक्ति), विधिपूर्वक देव-गुरु की * पृष्ठ ४०७
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