Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
२४१
प्रस्ताव ३ : प्रतिबोधकाचार्य अज्ञानवश व्यक्ति कुमार्गगामी बन जाता है। अन्ध होकर कुमार्ग में प्रवृत्ति करने वाला प्राणी भयंकर कठोर कर्मों को बांधता है और उन अशुभ कर्मों के प्रभाव से इस संसार समुद्र में अनेक प्रकार के दुःखों को भोगते हए भटकता रहता है। राग
और द्वेष को प्रवृत्त करने वाला भी यह अज्ञान ही है। भोगतृष्णा को भी जब किसी प्राणी को वशवर्ती करना होता है तब उसे भी अज्ञान की सहायता लेनी पड़ती है । अज्ञान न हो तो भोगतृष्णा वापिस मुड़ जाती है, शायद थोड़े समय तक वह ठहर भी जाय तो तुरन्त वापिस चली जाती है। यह प्रात्मा स्वरूप से सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और निर्मल होने पर भी अज्ञान के प्रभाव से पत्थर जैसी जडता को प्राप्त हो जाती है। देवताओं, मनुष्यों ओर मोक्ष की दैवी-सम्पत्तियों का हरण करने वाला और सन्मार्ग को रोकने वाला अज्ञान ही है। अज्ञान ही नरक है. क्योंकि वह महा अन्धकारमय है । अज्ञान ही वास्तविक दारिद्र य है, अज्ञान ही परम शत्रु है, अज्ञान ही रोगों को घर है, * अज्ञान ही वृद्धावस्था है, अज्ञान ही समस्त विपत्तियों का पुञ्ज है और अज्ञान ही मृत्यु है। यदि अज्ञान न हो तो यह घोर संसार समुद्र जिसे पार करना बहुत कठिन लगता है वह संसार में हते हुए भी बाधक नहीं लगता। प्राणी में जो कुछ भी प्रयुक्त व्यवहार और उन्मार्ग की प्रोर प्रवृत्ति दिखाई देती है, परस्पर विरोधी विचार दिखाई देते हैं, उन सब का कारण यह अज्ञान ही है। जिन प्राणियों के मन में प्रकाश को ढंकने वाला यह अज्ञान रहता है वे ही पाप कर्म में प्रवृत्ति करते हैं। जिन भाग्यवान प्राणियों के चित्त में से यह अज्ञान निकल जाता है उनकी अन्तरात्मा परम शुद्ध हो जाती है और वैसे प्राणी फिर सदाचार में ही प्रवृत्ति करते हैं । अत्यन्त विशुद्ध मन वाले ऐसे प्राणी पापपंक से मुक्त होकर अन्त में परम पद मोक्ष को प्राप्त करते हैं और त्रिलोक में वन्दनीय बनते हैं। यहाँ जिस अज्ञान का वर्णन किया गया है, तुम चारों उसके वशीभूत हो गये थे, इसीलिये यह सब विपरीत आचरण हुआ है। इसमें प्राप लोगों का कोई दोष नहीं है, दोष तो इस अज्ञान का ही है । [१-१६] पाप का स्वरूप
यह अज्ञान ही सर्वदा पाप नामक दूसरे डिम्भ (बालक) को उत्पन्न करता है। उसी प्रकार अज्ञान ने यहाँ भी पाप को उत्पन्न किया है। सज्जन पुरुष पाप को सब दु.खों का कारण बताते हैं, यह ठीक ही है। प्राणियों को यह हठात् उद्वेग रूपी भयंकर समुद्र में ढकेल देता है। ऐसा कहा जाता है कि संसार के सब क्लेशों का कारण यह पाप है, अत: सज्जन पुरुषों को जो पाप का कारण हो ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिये। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, शुद्ध तत्त्वज्ञान में प्रश्रद्धा, क्रोध, मान, माया और लोभ ये सब पाप के कारण हैं। मनीषी को चाहिये कि पापोत्पादक इन कारणों से प्रयत्न पूर्वक दूर रहे। ऐसा करने से पाप नहीं बंधेगे, और पाप का बन्धन नहीं होगा तो दुःख की संभावना भी नहीं रहेगी। * पृष्ठ १७७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org