Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव : ३ प्रतिबोधकाचार्य
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रहित जगत्वंद्य धर्म ही है, क्योंकि वह उत्कृष्ट अर्थ (मोक्ष) को दिलाने वाला है । अतः समस्त कामनाओं को त्यागकर परार्थ-साधक सुज्ञ चारित्रवान धीर पुरुषों को धर्म का ही सेवन करना चाहिये । [३१-३६]।
प्रतिबोध एवं दीक्षा
आचार्यश्री का अमृत तुल्य उपदेश सुनकर उन सब का चित्त संसारवास से निवृत हुआ ।
ऋतु राजा ने कहा - भगवन् ! आपने जैसा उपदेश दिया, मैं वैसा करने को तैयार हूँ ।
प्रगुरणा रानी ने भी राजा की ओर दृष्टिपात किया और कहामहाराज ! इस शुभ कार्य में अब थोड़ी सी भी देरी नहीं करनी चाहिये ।
मुग्धकुमार ने कहा - पिताजी ! श्रापका कहना यथार्थ है । माताजी ! श्रापकी बात भी सही है । इस प्रकार का अनुष्ठान करना पूर्णतया योग्य है और हमें ऐसा करना ही चाहिये ।
अकुटिला की आँखें भी प्रानन्दाश्रु से प्रफुल्लित हो गई, पर बड़ों के समक्ष लज्जावश वह कुछ बोली नहीं, किन्तु लोगों ने जो कहा उसके प्रति संकेत से अपनी सहमति प्रदर्शित की । [ ३७ - ४० ]
तब वे चारों आचार्य के चरणों में गिरे और ऋतु राजा ने कहाभगवन् ! प्रापने जो आज्ञा दी उसे स्वीकार करने के लिये हम प्रस्तुत हैं । उत्तर में आचार्यश्री ने कहा – तुम्हारे जैसे भव्य प्राणियों का ऐसा ही करना चाहिये । तत्पश्चात् ऋतु राजा ने पूछा - भगवन् ! इस कार्य के लिये शुभ दिन कौन-सा होगा? तब आचार्य ने कहा कि 'आज का दिन ही उत्तम है ।' अतः राजा ने वहाँ रहते हुए ही महादान दिया, देव पूजन किया, अपने छोटे पुत्र शुभाचार को राजगद्दी पर बिठाया और अपनी समस्त प्रजा को आनन्दित किया ।
तदनन्तर ये चारों दीक्षा ग्रहण करने
।
योग्य सभी कार्य पूर्ण कर प्रव्रज्या लेने के लिये आचार्यश्री के समक्ष उपस्थित हुए आचार्यश्री ने सद्भाव पूर्वक उन्हें दीक्षा दी । उसी समय अज्ञान और पाप रूपी बालक जो दूर खड़े इन चारों के धर्मसभा से बाहर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे वे भाग गये और उज्ज्वल बालक आर्जव अपने सूक्ष्म परमाणुओं से इन चारों के शरीर में फिर से प्रविष्ट हो गया । [१-२]।
कालज्ञ और विचक्षरणा को सम्यक्त्व की प्राप्ति
उस समय कालज्ञ और विचक्षणा अपने मन में सोचने लगे कि, अहो ! इन चारों मनुष्यों को धन्य है, इनका जन्म सफल हुआ | ये सच्चे पुण्यशाली जीव
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