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१८ : कनकशेखर
[ कुसंगति की बुराइयों को दिखाने के लिये तीसरे प्रकररण से विदुर ने स्पर्शन की कथा का प्रसंग उठाया था । जब राजा ने नन्दिवर्धन कुमार के पास विदुर को दूसरी बार भेजा था तब कुमार ने पूछा था कि, कल क्यों दिखाई नहीं दिया ? उत्तर में विदुर ने बताया था कि वह एक प्राश्चर्यजनक कथा सुनने में रुक गया था । कुमार के आग्रह करने पर विदुर ने स्पर्शन की संपूर्ण कथा कह सुनाई । स्पर्शन की कथा समाप्त होने पर विदुर और नन्दिवर्धन ( संसारी - जीव ) के बीच निम्न बातचीत हुई ]
कथानक का कुमार पर प्रभाव
विदुर – कुमार श्री ! कल मैने यह स्पर्शन की कथा सुनी थी । कथा बड़ी होने से मेरा पूरा दिन उसे सुनने में ही बीत गया, इससे कल मैं आपके पास नहीं आा सका, जिसके लिये क्षमा चाहता हूँ ।
नन्दिवर्धन - भद्र! बहुत अच्छा किया । यह कथा अत्यन्त रमणीय और चित्ताकर्षक है । इसे सुनने से रस तृप्ति भी होती है और उपदेश भी प्राप्त होता है । अहो ! सचमुच ही पापी मित्रों की संगति बहुत ही खराब है । देखो न, बाल ने स्पर्शन के साथ मित्रता की तो उसे इस भव में और परभव में अनेक घोर विडम्बनाओं से पूर्ण दुःखों की परम्परा ही प्राप्त हुई । इन दुःखों का कारण कुसंगति ही था अन्य कुछ नहीं ।
विदुर ने मन में विचार किया कि चलो यह अच्छा हुआ कि कुमार ने कथा के प्राशय और सार को बराबर समझ लिया है । अब इसे कुछ कहने - समझाने का अवसर मिल गया ।
विदुर की हितशिक्षा
उस समय मेरे निकट ही उसका मित्र वैश्वानर भी खड़ा था । कथा की प्रतिक्रिया के रूप में नन्दिवर्धन ने जो वाक्य कहे थे उसे सुनते ही वैश्वानर को झटका लगा। उसने सोचा, अरे ! कुमार के वाक्यों से यह स्पष्ट है कि कुमार विपरीत बातें करने लगा है । इस कुमार को यह उल्टी पाटी विदुर ने पढाई है । यह अच्छा नहीं हुआ । यह विदुर बड़ा मुँहफट और यथार्थता को समझने वाला है । यह मेरा वास्तविक स्वरूप कुमार को अवश्य ही बता देगा । इस कल्पना से वैश्वानर शंकित हो उठा ।
विदुर ने मन में सोचते हुए कुमार से कहा- ठीक है, प्रापने सम्यक् रीति से समझा । एक बात और है, प्रारणी की ऐसी प्रकृति स्वभाव) बन गई है कि जब
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