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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
निकट आई तब डाकूओं की सेना हम पर टट पड़ी और डाकुओं तथा हमारी सेना में घमासान युद्ध शुरु हो गया। भयंकर युद्ध : डाकुओं की पराजय
___ एक के बाद एक आ रहे तीरों की बौछार से विद्ध हाथियों के कुम्भस्थल से निकलते श्वेत मोतियों से जमीन ढंक गई। वह भयंकर युद्ध-भूमि बड़े तालाब जैसी लग रही थी और उसमें बीर योद्धाओं के कटे सिर रक्त कमल जैसे लग रहे थे। रक्त से लाल भरे हुए पानी में मानों दण्ड और छत्र ऐसे तैर रहे थे जैसे हंस तैर रहे हों।
लुटेरों की सेना अधिक संख्या में होने से ऐसी स्थिति आ गई कि कनकशेखर और मेरी सेना हारने के कगार पर पहुँच गई । उसी समय लुटेरों के पल्लीपति प्रवरसेन के साथ मेरा युद्ध प्रारम्भ हुआ। उस समय मेरे मित्र वैश्वानर ने दूर से ही मुझे संकेत किया जिसे समझ कर मैंने क्रूरचित्त नामक एक बड़ा खा लिया, जिससे मेरे शरीर में क्रोध का आवेग बढ गया, ललाट पर सल पड़ गये और शरीर पसीने से तरबतर होकर क्रोधाग्नि भभक उठी । प्रवरसेन धनुर्विद्या (तीर चलाने) में अत्यन्त कुशल था, तलवार चलाने में भी प्रबल साहसी और सिद्धहस्त था और समस्त प्रकार के अस्त्रों के प्रयोग को कला में भी निपुण था। वह शस्त्र-विद्या में प्रवीण होने से गर्वोन्मत्त और देवता का कृपापात्र होने से प्रबल पराक्रमी था, तथापि मेरे पास मेरा मित्र पुण्योदय भी होने से एवं उसके माहात्म्य से वह मेरी ओर कितने भी तीर फैकता किन्तु उनमें से एक भी मुझे नहीं लगता, उसके द्वारा प्रक्षिप्त शस्त्रास्त्रों का भी मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उसके मंत्रित शस्त्रों का भी मेरे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। न तो उसकी शस्त्र-विद्या और न उसके द्वारा मंत्रशक्ति से आमंत्रित देवता ही मेरा कुछ बिगाड़ सके । मेरे मित्र पुण्योदय का ऐसा प्रभाव था, किन्तु मैं तो यही मानता था कि, ग्रहो ! यह सब मेरे मित्र वैश्वानर और उसके बड़े का प्रभाव है। देखो न, उसको दृष्टि मात्र से मेरे शत्रु मेरी ओर आँख उठाने की भी हिम्मत नहीं कर सकते । उस समय तक मुझ पर वैश्वानर के बड़े का पूर्ण प्रभाव हो चुका था, परिणामस्वरूप प्रवरसेन का धनुष टूट गया, उसके दूसरे सब शस्त्र नष्ट हो गये और वह अपने हाथ में लपलपाती तलवार लेकर रथ से उतरा और मेरे सामने आया।
उस वक्त मेरी नवपरिणीता पत्नी हिंसा देवी ने जो मेरे पास में ही बैठो थी, मेरी ओर देखा, जिससे मेरे मनोभाव घोर भयंकर/रौद्र हो गये और मैंने अर्धचन्द्र बांण को कान तक खींचकर प्रवरसेन पर छोड़ा, जिससे सामने से आते हुए प्रवरसेन का सिर उड़ गया। उस समय हमारी सेना में विजयोल्लास से हर्षध्वनि फैल गई। देवतानों ने आकाश से मुझ पर पुष्पवृष्टि की, सुगन्धि जल की वृष्टि की, देव दुदुभि
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