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१. रिपुदारण और शैलराज मिनुजगति नगरी में सदागम के समक्ष अगहीतसंकेता को उद्देश्य कर संसारी जीव अपने चरित्र का वर्णन कर रहा है। उस समय प्रज्ञाविशाला और भव्यपुरुष भी पास बैठे हैं । संसारी जीव ने क्रोध, हिंसा और स्पर्शनेन्द्रिय-जन्य कर्मफल को प्रकट करने वाले नन्दिवर्धन के भव का विस्तृत वर्णन तृतीय प्रस्ताव में किया था। अब अपने चरित्र की कथा को आगे बढाते हुए कह रहा है :-] सिद्धार्थ नगर : राजा नरवाहन और विमलमालतो रानी
* अतिशय सुप्रसिद्ध, सौन्दर्य युक्त और पुण्यवान मनुष्यों से सेवित एक सिद्धार्थ नामक नगर था । उसमें नरवाहन राजा राज्य करता था। वह महाबली राजा अपने प्रताप-तेज से सूर्य को भी जीतने वाला, गंभीरता में महा समुद्र को जीतने वाला और स्थिरता में मेरु पर्वत से भी बढ़कर था । वह राजा पाने बन्धुवर्ग के लिये चन्द्रमा के समान शान्त, शत्रुओं के लिये अग्नि की प्रचण्ड ज्वाला के समान और अपने राज्य कोष की समृद्धि से कुबेर के समान था । इस नरवाहन राजा के रूप, शील, कुल और वैभव में उसके अनुरूप ही गुणों से शोभायमान विमलमालती नामक पटरानी थी। जैसे चन्द्रिका चन्द्रमा से और लक्ष्मी कमल से दूर नहीं रहती वैसे ही यह महारानी भी राजा के हृदय से कभी भी दूर नहीं रहती थी। अर्थात् नरवाहन राजा और विमलमालती रानी दोनों अभिन्न हृदय थे। [१-४]... रिपुदारण का जन्म
हे अगृहीतसंकेता ! मैं अपने पुण्योदय मित्र के साथ और अपनी स्त्री भवितव्यता के साथ (पूर्वभव से च्युत होकर) विमलमालती रानी की कुक्षि में प्रविष्ट हया । गर्भ समय पूर्ण होने पर मैंने प्रकट रूप से और मेरे अंतरंग मित्र पुण्योदय ने अदृश्य रूप से जन्म लिया। मेरे शरीर के सभी अवयव बहत ही सुन्दर थे। मुझे प्राप्त कर स्वयं को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है इस विचार से मेरी माना विमलमालती अत्यधिक हर्षित हुई । उस भव के मेरे पिता नरवाहन को मेरे जन्म के समाचार प्राप्त होने पर वे भी हृदय से तुष्ट हुए । सम्पूर्ण नगर को राजकुमार के जन्म से हर्ष हुआ तथा सारे राज्य और नगर में मेरा जन्मोत्सव मनाया गया । उस समय मेरे मन में ऐसी कल्पना हुई कि नरवाहन राजा और विमलमालती रानी का पुत्र हूँ और वे दोनों मेरे माता-पिता हैं । मेरे जन्म के एक माह पश्चात् बड़े हर्षोल्लास के साथ मेरा नाम रिपुदारण रखा गया। [५-११] शैलराज का जन्म
नन्दिवर्धन के भव में अविवेकिता नामक जो मेरी धाय माता थी (यह तो
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