Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंव कथा
में दारुण कष्ट होता है और अत्यन्त दुःख से प्राणी विलाप पूर्ण क्रन्दन करता है, अर्थात् उसकी दशा बड़ी दयनीय बन जाती है । ऐसे अवसरों पर वे विवेकी पुरुषों के दयापात्र बन जाते हैं । हे सर्वांगसुन्दरी अगृहीतसंकेता ! संसारी प्राणियों की इसी मनःस्थिति को चित्तविक्षेप मण्डप के मध्य बने तृष्णा वेदिका (मंच) का रूप समझना चाहिये। [८०-६१] विपर्यास सिंहासन का उपनय
ऐसी शोचनीय दशा में भी वेल्लहल ने विचार किया कि शरीर में वायु दोष बढ जाने से उसे वमन हुआ है, वमन होने से उसका पेट खाली हो गया है और यदि यह उदर खाली रहा तो फिर इसमें वायु का प्रकोप बढ़ जायगा जिससे मुझे कष्ट-पीडा होगी, अतः दुबारा डटकर भक्षण कर लू ताकि पुनः वायु-प्रकोप न हो। हे चपलनेत्री अगृहीतसंकेता! यह जीव भी ऐसा ही सोचा करता है । जब उसके द्वारा संचित वैभव पापरूपी ज्वर से नष्ट हो जाता है, अपने किसी स्वजन का, स्त्री का अथवा पुत्र का मरण होता है, अथवा हृदय पर आघातकारक किसी अत्यन्त प्रिय पदार्थ का विनाश होता है तब प्राणी मन में सोचता है कि शायद मैंने नीति (युक्ति) से धन नहीं कमाया, या सुचारु रूप से पुरुषार्थ नहीं किया, अथवा मैंने योग्य स्वामी का आश्रय नहीं लिया, अथवा व्याधि का उपचार बराबर नहीं किया। इसीलिये मेरा सर्वस्व चला गया, मेरो चारुदर्शना सुन्दर पत्नी मर गई या मेरे देखतेदेखते पुत्र और बान्धव आदि अकाल में ही काल-कवलित हो गये । परन्तु, अब मैं उनका विरह क्षण भर भी नहीं सहन कर सकता। एक बार फिर पूरे उत्साह से प्रयत्न करूंगा और पहले के समान सब वैभव प्राप्त करूंगा, युक्ति-प्रयुक्ति से उसे सम्भाल कर रखूगा और उसकी सावधानी पूर्वक रक्षा करूगा । यदि मैं साहस खोकर बैठ जाऊं तो बकरी के गले के स्तन के समान मेरा जीवन व्यर्थ है, अर्थात् मेरा जन्म होना न होने के समान है। अतः पुनः प्रयत्न कर पूर्ववत् समस्त वैभव प्राप्त करू । हे सुभ्र अगृहीतसंकेता ! जीव इस प्रकार की जो चेष्टायें करता है उसे विपर्यास सिंहासन के समान समझना चाहिये । [६२-१००] वमित भोजन को पुनः खाने की अर्थ-योजना
हे सुन्दरि ! जैसे वेल्लहल कुमार समयज्ञ वैद्यपुत्र के रोकने पर भी सब लोगों के देखते हुए लोलुपता पूर्वक वमन मिश्रित भोजन करने लगा, उस समय पारिवारिक लोगों ने चिल्लाते हुए उसका हाथ पकड़ कर उसे रोकना चाहा और वैद्यपुत्र ने रोकते हुए % कुत्सित भोजन के दोष उसे समझाये । तब भी वह राजपुत्र वैद्य के चिल्लाने की और उसके द्वारा वरिणत दोषों की उपेक्षा कर, उसी वमन मिश्रित कुत्सित भोजन को स्वयं के लिये हितकारी मान कर गाढासक्ति पूर्वक खाने लगा। वैसे ही यह संसारी जीव कर्मों की मलिनता के कारण निर्लज्ज होकर भोग कर
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