Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव : ४ महामूढता, मिथ्यादर्शन, कुदृष्टि
४६६ मिथ्यादर्शन अपनी शक्ति से आच्छादित कर देता है और उसके स्वरूप का विशेष रूप से ज्ञान भी नहीं होने देता है । अर्थात् जो प्राणी इसके वश में हैं. वे ऐसे महा गुणी अक्षय सुखदायी सच्चे देव के स्वरूप को नहीं समझ सकते और न ऐसे देवों के अस्तित्व का ही उन्हें कोई भान रहता है । [१७७-१८१] अधर्म को धर्म : धर्म को अधर्म
स्वर्गादान, गोदान, पृथ्वीदान आदि करने, बार-बार स्नान करने, धूम्रपान करने, पंचाग्नि तप करने, चण्डिका आदि देवियों का तर्पण करने, बड़े-बड़े तीर्थों पर जाकर शरीरपात (आत्मघात) करने, साधुनों को एक ही घर में भोजन कराने, गाने बजाने नाचने आदि का आदर करने, बावड़ी-कुएं और तालाब खुदवाने, यज्ञों में मंत्रों द्वारा पशुओं का होम करने आदि ऐसे-ऐसे अनेक प्रकार के जो प्रारणघातक, शुद्ध-भावरहित धर्म इस संसार में दिखाई दे रहे हैं, हे भद्र ! उन्हें इस महाबली मिथ्यादर्शन ने प्रपञ्च से लोगों को ठगकर जगत् में धर्म के नाम से फैलाया है। [१८२-१८६]
. इस संसार में अन्य भी धर्म हैं जो कहते हैं कि क्षमा करो, मृदुता (नम्रता) धारण करो, संतोष धारण करो, हिंसा का त्याग करो, पवित्रता धारण करो, सरलता सीखो, लोभ त्यागो, तप करो, संयम में मन को लगायो सत्य बोलो, परद्रव्य का हरण मत करो, ब्रह्मचर्य का पालन करो, शान्ति रखो, इन्द्रियों का दमन करो, अहिंसा का पालन करो, पराई वस्तु न लो, शुद्ध ध्यान धरो, ससारजाल पर विराग रखो, गुरु की भक्ति करो, प्रमाद त्यागो, मन को एकाग्र करो, निर्ग्रन्थता में तत्पर रहो आदि आदि चित्त को निर्मल करने वाले अमृत जैसे शुद्ध उपदेश, जो सच्चे शुद्ध धर्म के योग्य हैं, जो जगत् को आनन्ददायक और संसार-समुद्र के उल्लंघन के लिये सेतु जैसे हैं, उन्हें यह महामोह का सेनापति मिथ्यादर्शन प्रकृति से ही अधर्म की आड में आच्छादित करता रहता है । अर्थात् ऐसे विशुद्ध धर्म को अप्रसिद्धि कैसे हो. जनसमूह इसे कम से कम जाने, ऐसी योजना वह प्रति-समय बनाता रहता है और ऐसे धर्म को अधर्म के रूप में प्रसिद्ध करने का सर्वदा प्रयत्न करता है। [१८७-१६०] प्रतत्व में तत्त्वबुद्धि : तत्त्व में प्रतत्त्वबुद्धि
आत्मा श्यामाक (धान्य) एवं चावल जैसे आकार का है, पाँच सौ धनुष प्रमाण है, अखिल विश्व में एक है, नित्य है, विश्व व्यापी है, विभु है, क्षण-सन्तान रूप है अर्थात् क्षण-क्षण में विनाशशील है, ललाट में रहता है, हृदय में रहता है, ज्ञान मात्र (रूप) ही है. चराचर सभी शून्यमात्र है, पञ्चभूतों का समह है, अखिल विश्व ब्रह्म निमित है, देव सजित है और महेश्वर निर्मित है-आदि आदि प्रात्मा के विषय में जो अनेक प्रकार के प्रमाण-बाधित तत्त्व मानते हैं। ऐसे तत्त्वाभास के विषय में भी यह मिथ्यादर्शन प्राणी को तत्त्वतः म.नने की सद्बुद्धि जाग्रत करता है। [१६१-१६४]
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