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प्रस्ताव ४ : महामूढता, मिथ्यादर्शन, कुदृष्टि
५०३ तिलों की यज्ञ में प्राहति लग गई, तेरे खीर की यज्ञ में आहुति लग गई, इसलिये अब तेरे सब पाप जलकर नष्ट हुए, ऐसा कहकर धूर्तजन दूसरों का माल उड़ाते हैं
और मूर्ख प्राणी उनका अनुसरण करते हैं। उस समय यदि कोई सन्मार्ग का प्रतिपादन करने वाला वक्ता पुकार-पुकार कर अनेक प्रकार से समझाता भी है तब भी वह जीव उसकी परवाह नहीं करता, अपितु उपदेश देने वाले को मूर्ख समझता है। भाई प्रकर्ष ! मिथ्यादर्शन द्वारा निर्मित इस चित्तविक्षेप मण्डप का यही परिणाम है। [२२४-२४२) तृष्णा वेदिका का रहस्य
हे भद्र ! यह प्राणी काम-भोग के विषयों में इतना लुब्ध होता है कि मरते दम तक इन्हें नहीं छोड़ पाता। काम-भोगों की प्राप्ति के लिये वह अनेक प्रकार की विडम्बनाओं को सहन करता है। जैसे. अप्सरा को प्राप्त करने के लिये नन्दाकुण्ड में प्रवेश करते हैं। इस भव के पति को फिर से प्राप्त करने के लिये मृत पति के साथ चिता में जलकर आत्मघात करती हैं (सती प्रथा)। स्वर्ग, धन एवं पुत्रप्राप्ति की कामना से अग्निहोत्र यज्ञ या ऐसे ही अन्य अनुष्ठान करते हैं, दान देते हैं और प्राशा करते हैं कि मृत्यु के पश्चात् दान के बदले में मुझे अमुक वस्तु मिले । परन्तु, ऐसे अनुष्ठानों के बदले वह मोक्षरूपी फल की न तो कभी अाशा हो करता है और न कभी उसे प्राप्त ही करता है । वह जो कुछ कर्मानुष्ठान भी करता है वह भी परलोक में अर्थ अथवा काम-भोग की प्राप्ति के निदान से करता है । इसलिये वह सब दोषपूर्ण हो जाता है । भैया ! यह सब मिथ्यादर्शन द्वारा निर्मित और संचालित तृष्णा मंच के कारण ही होता है। [२४३-२४८] विपर्यास सिंहासन का रहस्य
भाई प्रकर्ष ! प्राणी को मोक्ष में जाने की अभिलाषा होने पर भी वह दिङ मूढ की तरह सन्मार्ग से पलायन कर विपरीत मार्ग को अपनाता है । जैसे, सर्वज्ञ सर्वदर्शी जिनेश्वर भगवान् की वह निन्दा करता है, अप्रामाणिक वेदों को वह प्रामाणिक मानता है, वह मूर्ख अहिंसा-लक्षण विशुद्ध धर्म को दूषित बताता है, जब कि पशु-हिंसा से पूर्ण यज्ञादि धर्म को प्रशस्त बताता है। * मोह से असत्य तत्त्व के चक्कर में पड़कर जीव-अजीव आदि शुद्ध सत्य तत्त्वों की निन्दा करता है और पृथ्वी, पानी, तेजस्, वायु और आकाश आदि पञ्चभूतों की स्थापना करता है अथवा शून्यवाद की स्थापना करता है, अर्थात् उसे सत्य कहता है । यह जड़ात्मा (मूढ) शुद्ध ज्ञान, दर्शन, चारित्र के उपासक विशुद्ध पात्र की निन्दा करता है और सर्व प्रकार के प्रारम्भजन्य (आस्रव) की प्रवृत्तियों में पड़े हुए को पात्र मानकर उसे प्रसन्नता से दान देता है। वह तप, क्षमा और ब्रह्मचर्य को निर्बलता का प्रतीक मानता है। जब कि शठता,
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