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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
करते हैं। इस संसार में मद्यपान, सून्दरांगी के साथ सम्भोग, मांस भक्षण संगीत-श्रवण स्वादिष्ट भोजन, पुष्पहार, पान-सुपारी, सुन्दर वस्त्राभूषण, सुखदायी आसन आदि पदार्थों का भोग, अलंकार धारण, त्रिभुवन व्यापी निर्मल यश, मूल्यवान रत्नों का संग्रह, शूरवीरता, महाबली चतुरंग सेना, विशाल राज्य की प्राप्ति और यथेष्ट सम्पदाओं की प्राप्ति आदि ही यदि दुःख के कारण हैं तो फिर सूख है कहाँ ? कूछ बेचारे झठे सिद्धान्त में फंसकर अपने शुष्क 8 पांडित्य के अभिमान में ग्रस्त हो जाते हैं, वे निश्चय रूप से इस लोक में भोग-साधनों और स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों से वंचित ही रहते हैं। ये स्वयं तो धर्म-पागल होकर भोग नहीं भोग सकते, पर जो अन्य प्राणी प्रयत्न पूर्वक भोग सामग्री प्राप्त कर उपभोग करने वाले होते हैं उनके भोगों का भी अपने हाथों से नाश करवाते हैं । देखो न, ऐसे धर्म-पागल पण्डित संसार के भोगों को बन्धन बताते हैं और मोक्ष का उपदेश देते हैं, पर मोक्ष में तो ऐसे भोग उपलब्ध ही ही नहीं होते । फिर ऐसे मोक्ष का उपदेश ठगी नहीं तो और क्या है ? कौन ऐसा समझदार मनुष्य है जो ऐसे मोक्ष के लिये संसार के अमृत तुल्य सुखों का त्याग करेगा ? ११६-१२३]
ऐसा जीव गुरु महाराज के शुद्ध, सत्य उपदेशों से पराङ मुख होकर ऐसी-ऐसी विपरीत कल्पनाओं द्वारा दूर भागता है, उसके विरुद्ध आचरण करता है और भोगपदार्थों में अभूतपूर्व नये-नये गुणों की कल्पना करता है। वह मानता है कि ये भोग पदार्थ स्थिर हैं अर्थात् निरन्तर रहने वाले हैं, पवित्र हैं, सुख देने वाले हैं और वस्तुतः मेरे ही रूप हैं । मैं और ये अभिन्न हैं, ये मेरे ही हैं, मेरे लिये ही निर्मित हैं, अतः अब इनके अतिरिक्त मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है । मुझे इस तथाकथित मोक्ष या शान्ति के साम्राज्य की कोई आवश्यकता नहीं है और धर्माचार्य या अन्य किसा के ऐसे बड़े-बड़े शब्दाडम्बरों के जाल में मैं अब अपनी आत्मा को नहीं फंसाऊंगा । ऐसे विचारों से प्राणी प्रमाद रूपी अशुचि के कीचड़ में धसता रहता है । शुद्ध धर्म क्या है ? प्राणी का कर्त्तव्य क्या है ? आदि समझाते हुए धर्माचार्य तो उसके हितार्थ उच्च स्वर से पुकारते हुए दूर रह जाते हैं । हे श्रेष्ठमुखी अगृहीतसंकेता! प्राणी की ऐसी अविद्या (अज्ञान) मय मनोभावनाओं को ही महामोह राजा की अविद्या नामक शरीर-स्थिति समझना चाहिये । [१२४-१२८] सन्निपात का रहस्य
वेल्लहल कुमार ने रोकने पर भी वमन मिश्रित भोजन ठूस-ठूस कर किया जिससे उसे सन्निपात हो गया । वह अपना भान भूल गया और उल्टी के कीचड़ में जमीन पर गिर पड़ा। इसी कीचड़ में लोट-पोट होते हुए असह्य वेदना के कारण उच्च स्वर से क्रन्दन करने लगा और वह अवर्णनीय अचिन्त्य असाध्य दशा को प्राप्त हो गया । हे सर्वांगसुन्दरि ! तब उसे इस असाध्य रोग से बचाने में कोई भी * पृष्ठ ३५७
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