Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ४ : रसना और लोलता
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प्रकार के मन को तुष्टि देने वाले सुखों को (मानसिक सुख) भोगता हुमा आनन्दपूर्वक अपना समय व्यतीत कर रहा था । अन्यदा मलक्षय राजा ने अपने पुत्र विमर्श को उसकी बहिन बुद्धि के कुशल समाचार प्राप्त करने के लिये उसके पास भेजा। विमर्श कुमार को अपनी बहिन बुद्धि पर प्रगाढ स्नेह था, अतः वह उसके पास आकर वहीं आनन्दपूर्वक रहने लगा। बुद्धि को भी अपने भाई विमर्श पर अत्यन्त स्नेह था और उसका पति विचक्षण भी उसका बहुत सन्मान करता था तथा पति-पत्नी में परस्पर अत्यन्त प्रेम था, इसलिये विमर्श के आने से उन्हें अतिशय प्रसन्नता हुई । ऐसी प्रेम और स्नेहशील परिस्थितियों में बुद्धि ने गर्भ धारण किया। समय परिपक्व और गर्भ काल पूर्ण होने पर उसने एक अत्यन्त दीप्तिमान सर्वांगसुन्दर बालक को जन्म दिया। इस बालक का नाम प्रकर्ष रखा गया। दिनों दिन बुद्धिनन्दन प्रकर्ष कुमार बढ़ने लगा। साथ ही साथ उसके गुरगों में भी वृद्धि होती गई और वह अपने पिता विचक्षण जैसा गुणवान बन गया । वह अपने मामा विमर्श का भी बहुत लाड़ला था। [३६-४२]
७. रसना और लोलता एक दिन विचक्षण कुमार और जड़ कुमार अपने मनोहर वदनकोटर (मुख) नामक उद्यान में घूमने गये । वहाँ अपनी इच्छानुसार खाते-पोते प्रसन्नता में झूमते वे दोनों कुछ समय तक वहाँ रहे। इस वदनकोटर उद्यान में मोगरे जैसे सफेद पाड़े-टेढ़े, चिरे हुए वृक्षों की दो मनोहर पंक्तियाँ (दन्त-पंक्तियाँ) उन्होंने देखी । वे कौतुक से इन सफेद वृक्ष (दन्त) पंक्तियों के भीतर गये तो वहाँ उन्हें एक बहुत बड़ा बिल (गुफा) दिखाई दिया। वह इतना अधिक गहरा था कि उसका कहीं अंत ही दिखाई नहीं देता था। ऐसे अद्भुत बिल का वे दोनों कुमार आश्चर्यचकित होकर आँखे फाड़कर बहुत समय तक निरीक्षण करते रहे । उस समय उनके देखते. देखते एक रक्तवर्ण वाली मनोहर और सुन्दरांगी ललना अपनी दासी के साथ बाहर निकली। [४३-४८] रमणी का कुमारों पर प्रभाव
___अचानक ऐसी सुन्दर स्त्री को बाहर निकलते देखकर विपरीत बुद्धिवाला जड़ कुमार हर्षित हुआ और सोचने लगा कि, अहो ! यह तो कोई अपूर्व स्त्री है। ऐसी लावण्यवती तरुणी तो मैंने कभी देखी ही नहीं । अहा ! कैसी इसकी सुन्दरता! कैसी रमणीय अनुकृति ! कैसा मनोहर रूप ! कैसे सुन्दर आकर्षक गुरण ! कहीं यह * पृष्ठ ३२७
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