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प्रस्ताव ४ : भौताचार्य कथा
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महामोह राजा और उसके गुणों का वर्णन किया । अब इस राजा का परिवार कैसा-कैसा है ? इसका वर्णन करूगा । [५६-६७]
इतना कहकर विमर्श थोड़ी देर चुप हो गया।
१०. भौताचार्य कथा [विचक्षणाचार्य अपनी कथा नरवाहन राजा के समक्ष सभाजनों एवं रिपुदारण को सुनाते हुए कह रहे थे कि जिस समय विमर्श ने चित्तवृत्ति अटवी से लगाकर मोहराजा तक का वर्णन किया उस समय प्रकर्ष ने बीच में न तो एक भी प्रश्न किया और न हंकारा ही भरा। इससे विमर्श को लगा कि या तो प्रकर्ष बराबर समझ नहीं रहा है या किसी अन्य विचार में पड़ा हुआ है । मुझे तो नहीं लगता कि इसने बराबर ध्यान देकर मेरी बात सुनी हो ।]
अतः विमर्श ने पूछा ---भाई प्रकर्ष ! यद्यपि मैं तेरे सन्मुख प्रस्तुत प्रतिपाद्य विषय का विस्तार से वर्णन कर रहा हूँ तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि किन्हीं विचारों में तू खो गया है और गुमसुम होकर सुनता जा रहा है; क्योंकि वर्णन के बीच में न तो तूने एक भी प्रश्न पूछा और न हुंकारा ही दिया। इससे लगता है कि मेरी बात तुझे भलीभाँति समझ में नहीं आई है । सम्पूर्ण वर्णन के बीच में तू ने कभी सिर भी नहीं हिलाया, न कभी चुटकी ही बजाई । अपनी आँखों को स्थिर करके तू मेरी ओर देख रहा था, पर तेरे मुख पर भी किसी प्रकार का भाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था, जिससे मुझे पता नहीं लग सका कि तू मेरी बात को ठोक से समझ पाया या नहीं ? [६५-७० ।
प्रकर्ष-मामा ! ऐसा न कहिये । आपकी कृपा से संसार में ऐसी कोई बात नहीं है जो स्पष्टतः मेरी समझ में न आये। [७१]
विमर्श-भैया ! मैं जानता हूँ कि तू मेरी बात स्पष्ट रूप से समझ रहा है। मैंने तो तेरे साथ किंचित् परिहास किया था, क्योंकि
विज्ञातं परमार्थेऽपि, बालबोधनकाम्यया ।
परिहासं करोत्येव, प्रसिद्ध पण्डितो जनः ॥ विद्वान् लोग बच्चों को समझाने के लिये, परमार्थ (वस्तुतत्त्व) को समझ रहा हो फिर भी उनके साथ उच्चस्तरीय किचित् हास्य-विनोद करते ही हैं । भद्र ! मुझे तो तेरे जैसे भाणजे के साथ विनोद करना ही चाहिये । मेरे तनिक परिहास पर कुपित होना उचित नहीं है । सुन, यद्यपि मेरे द्वारा कथित सब वर्णन तुझे समझ में आ गया होगा, फिर भी मेरे उत्साह और हर्ष को बढ़ाने के लिये कभी-कभी तुझे वार्ता के बीच में प्रश्न करना चाहिये । किसी भी वार्तालाप के बीच-बीच में शंका-समाधान
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