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उपमिति भव-प्रपंच कथा
भेजा था । स्पर्शन, रसनादि पाँचों ने लगभग पूरे संसार को अपने वश में कर लिया था, तभी इस पापी संतोष ने इन पाँचों को भगाकर कुछ लोगों को बचा लिया था और उन्हें निर्वृति नगर में पहुँचा दिया था। यह संवाद सुनते ही महाराजा रागकेसरी को प्रचण्ड क्रोध आया और संतोष को पराजित करने के लिये स्वयं ही निकल पड़े । यही लड़ाई का मूल कारण है ।
विमर्श ने सोचा कि - अहा ! रसना के नाम की कुछ तो भनक पड़ी । इसका मूल कहाँ से शुरू हुआ है, इसके बारे में नाम से तो कुछ पता लगा । रसना के गुण के बारे में तो विषयाभिलाष को देखकर ज्ञात करूंगा। अधिकांशतः बच्चे पिता के अनुरूप ही होते हैं तो विषयाभिलाष को देखने पर शायद रसना के गुण के सम्बन्ध में भी निर्णय हो जाएगा । ऐसा सोचते हुए विमर्श बोला - हे भद्र ! यदि ऐसी बात है तब फिर श्राप यहाँ कैसे रहे ? आप लड़ने क्यों नहीं गये ?
मिथ्याभिमान - जब हमारी सेना यहाँ से प्रयाण ( कूच) करने को तैयार हुई थी तब मैं भी सबके साथ तैयार होकर बाहर निकला था, किन्तु हमारे महाराजा ने सेना के मुख्य भाग में मुझे देखकर अपने पास बुलाया और कहा - 'आर्य मिथ्याभिमान ! तुम इस नगर को छोड़ कर बाहर मत जाना। हमारे नगर से बाहर चले जाने पर भी यदि तुम यहाँ रहोगे तो नगर की श्री शोभा किंचित् भी कम नहीं होगी और इस पर कोई चढ़ाई भी नहीं करेगा, अर्थात् नगर उपद्रव रहित रहेगा । जैसे हम स्वयं ही यहाँ हों, इस तरह सब कुछ चलता रहेगा, क्योंकि इस नगर की रक्षा करने में तुम्हीं समर्थ हो ।' मैंने राजाज्ञा को शिरोधार्य किया और मैं यहीं रहा । मेरे यहाँ रहने का यही कारण है ।
विमर्श - जब से आपके राजा युद्ध-स्थल पर गये हैं तब से उनके कुशल समाचार और लड़ाई की प्रगति के बारे में आपको संवाद मिले या नहीं ?
मिथ्याभिमान - अरे ! हाँ, बहुत समाचार मिले हैं। हमारे राजा के दैवी साधनों से लड़ाई में प्रायः हमारी जीत हुई है, परन्तु अभी भी उस पापी संतोष को सर्वथा पराजित नहीं किया जा सका है । वह लुटेरा चोर बीच-बीच में हमारे राजा की आँखों में धूल झोंककर किसी-किसी मनुष्य को निर्वृति नगर ले भागता है । यद्यपि संतोष को पराजित करने के लिये राजा स्वयं लड़ने गये हैं परन्तु वे अभी तक उसे पूरी तरह से पराजित नहीं कर पाये हैं इसीलिये इतना समय लग गया है । विमर्श --- तब आज कल आपके राजा कहाँ सुने जाते हैं, अर्थात् कहाँ हैं
यह प्रश्न सुनकर मिथ्याभिमान के मन में शंका उठी कि कहीं ये दोनों (विमर्श-प्रकर्ष) शत्रुओं के गुप्तचर तो नहीं हैं और कहीं गुप्तचरी करने तो यहाँ नहीं आये हैं ? इस विचार से उसने बात को उड़ा दिया । उत्तर में वह बोला- मुझे इस विषय में पक्की खबर नहीं है । प्रयाग के समय उनके कहने से ऐसा लगता था कि यहाँ से वे तामसचित्त नगर की ओर गये हैं । कदाचित् अभी भी वे वहीं हों ।
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