Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ४ : मृषावाद
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जो अमृतोपम ज्ञान के योग्य न हो, ऐसे कुपात्र को ज्ञान देने वाला अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह सज्जनों की दृष्टि में हँसी का पात्र बनता है और अनर्थों का भाजन (स्थान) बनता है।
कुत्ते की पूछ सैकड़ों बार सीधी की जाय तो भी क्या वह कभी सीधी हो सकती है ? अर्थात् वह तो टेढी की टेढी ही रहेगी। ऐसा ही यह रिपुदारण है, इस पर शताधिक प्रयत्न करने पर भी यह सुधर सकेगा ऐसा नहीं लगता। [३३-३४]
उपरोक्त विचार कर महामति कलाचार्य अब तक जो मेरे अभ्यास के प्रति विशेष ध्यान दे रहे थे * वे भी अपने प्रयत्न में शिथिल पड़ गये और मुझे सुधारने के लिये जो समय-समय पर मुझे पास बिठाकर, व्यवहारोपयोगी उपदेश देते थे, वह सब भी उन्होंने बन्द कर दिया। अब वे मुझे मार्ग की धूल जैसा तुच्छ मानकर मेरे प्रति उपेक्षा करने लगे, परन्तु मेरे पिताजी को उन पर बड़ी कृपा थी इसलिये वे मेरी उपेक्षा का थोड़ा भी भाव या विकार अपने चेहरे पर प्रकट नहीं होने देते थे और न मुझे कभी कटु शब्द ही कहते थे।
मेरे साथ अभ्यास करने वाले अन्य राजकुमारों ने जब यह देखा कि मैं शैलराज और मृषावाद की संगति में फंसा हुअा हूँ और मैं इनकी संगति छोड़ नहीं सकता तब वे सभी मेरे से विरक्त हो गये, मेरे से दूर-दूर रहने लगे । यद्यपि वे मुझे तिरस्कृत करने का अनेक बार विचार कर चुके थे, परन्तु पुण्योदय मित्र मेरे साथ होने से वे एक बार भी अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणत नहीं कर सके । तथापि जैसे-जैसे शैलराज और मृषावाद को संगति का प्रभाव मुझ पर बढता गया वैसे-वैसे मेरे मित्र पुण्योदय का मेरे प्रति स्नेह दिनों दिन अधिकाधिक कम होता गया। कलाचार्य का अपमान : असत्य-भाषरण
इस प्रकार शनैः-शनैः ज्यों-ज्यों मेरे प्रति मेरे पुण्योदय का स्नेह क्षीण होने लगा त्यों-त्यों मेरे मन में कलाचार्य का स्पष्ट रूप से अपमान करने की इच्छा प्रबल होती गई। एक बार हमारे कलाचार्य किसी काम से बाहर गये थे तब मैं उनके बैठने के मूल्यवान वेत्रासन पर चढ बैठा । मेरे सह-शिक्षार्थी राजपुत्रों ने जब मुझे कलाचार्य के आसन पर बैठे देखा तब मेरे इस कर्म से वे बहुत ही लज्जित एवं दुःखी हुए। उन्होंने बहुत ही धीमी आवाज में मुझ से कहा-'अरे कुमार ! यह काम तुमने ठीक नहीं किया । कलागुरु का आसन वन्दनीय और पूजनीय होता है, उस पर तेरे जैसे व्यक्ति का आक्रमण करना अर्थात् बैठना किसी भी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता । गुरु के आसन पर बैठने से विद्यार्थी के कुल को कलंक लगता है, अत्यधिक अपयश फैलता है, पाप बढ़ता है और आयु कम होती है।'
इन सब राजकुमारों को जो मुझ से बात करते हुए भी कांपते थे, मैंने डपट कर जवाब दिया- अरे मूल् ! मुझे शिक्षा देने वाले तुम कौन होते हो? तुम * पृष्ठ ३०५
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