Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
(शैलराज, मृषावाद) की संगति छोड़ दे अन्यथा मेरे गुरुकुल में दुबारा पाने की आवश्यकता नहीं है।' प्राचार्य के ऐसे वचन सुनते ही मैं भभक उठा और घृष्टतापूर्वक बोला--'तू अपने बाप को तेरे गुरुकुल में रखना। मुझे तेरो क्या परवाह पड़ी है ? मैं तो तेरे गुरुकुल के बिना और तेरे बिना भी चला लूगा।' इस प्रकार कटु एवं कठोर वचनों द्वारा कलाचार्य का अपमान कर, उनके समक्ष अपनी गर्दन ऊंची उठाकर, आकाश की तरफ ऊंची दृष्टि रखकर, छाती को फुलाकर, जोर से पांव पटककर चलते हुए और अपने हृदय पर शैलराज द्वारा प्रदत्त स्तब्धचित्त लेप लगाते हुए मैं आचार्य के कक्ष से बाहर निकल गला ।*
जब मैं बाहर निकल गया तब प्राचार्य ने मेरे सहपाठी अन्य राजपुत्रों को बुलाकर कहा-अरे देखो! यह दुरात्मा रिपुदारण अभी तो यहाँ से चला गया है । इसके विषय में मुझे केवल एक ही बात खटकती है । वह यह कि हमारे प्रतापी नरवाहन राजा को अपने पुत्र पर अत्यधिक प्रेम है । संसार का ऐसा नियम है कि जो स्नेह में अन्धे हो जाते हैं वे अपने स्नेही में रहे हुए दोषों को नहीं देख सकते, उसमें जो गुण वास्तव में नहीं होते उन गुणों का भी उसमें झूठा आरोप करते हैं, अपने स्नेही के प्रति अप्रिय कार्य करने वालों पर रुष्ट होते हैं, अन्य व्यक्ति 'अप्रियकारी कार्य क्यों कर रहा है। इसके बारे में कभी सोचते भी नहीं, अमुक पद पर स्थापित व्यक्ति को अमुक प्रकार का सन्मान मिलना चाहिये या नहीं इस बात पर कभी ध्यान नहीं देते और स्वाभिमत के विरुद्ध यदि कोई किंचित् भी विपरीत कार्य करे तो उसके समक्ष वह अनेक प्रकार की कठिनाइयां खड़ी कर देते हैं । इसलिये तुम सब छात्रों को इस सम्बन्ध में चुप ही रहना चाहिये । यदि नरवाहन राजा रिपुदारण को यहाँ से निकालने के प्रसंग में कोई प्रश्न उठायेंगे तो मैं उसका उचित उत्तर दे दूंगा । प्राचार्य महामति के इस आदेश को सभी कुमारों ने स्वीकार किया। प्रवीणता का दम्भ
महामति आचार्य से मेरी झड़प के बाद मैं गुरुकुल से निकल कर सीधा पिताजो के पास आया । पिताजी ने स्वाभाविक प्रश्न किया-'पुत्र ! तेरा अभ्यास कैसा चल रहा है ?' उस समय शैलराज द्वारा प्रदत्त लेप मेरे हृदय पर लगाया हुआ था और मुझे मृषावाद का बड़ा सहारा था, अतः मैंने पिताजो से कहा-पिताजी! सुनिये
वैसे तो मैं प्रारम्भ से ही समस्त कला-विज्ञान का ज्ञाता था । आपने जो प्रयत्न किया वह इसीलिये किया था कि मैं पहिले जो कुछ जानता था उससे अधिक कलाओं की जानकारी प्राप्त करूं । परन्तु, वास्तविकता यह है कि मैंने लेखनकला, चित्रकला, धनुर्वेद, सामुद्रिक शास्त्र, गायन कला, हस्तिशिक्षा, पत्तों पर चित्र बनाने
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