________________
प्रस्ताव ४ : मृषावाद
४२५
की कला, वैद्यक, व्याकरण. तर्क, गणित, धातुवाद, इन्द्रजाल, निमित्त शास्त्र तथा लोक में प्रसिद्ध अन्य जो भी श्रेष्ठ कलायें हैं, पिताजी ! उन सभी कलाओं में निपुणता प्राप्त करली है । तीनों लोकों में भी इन सब कलाओं में मुझ से अधिक प्रवीण व्यक्ति मुझे तो अन्य कोई भी दिखाई नहीं देता। [१-४]
पिताजी को व्यावहारिक शिक्षा
मुझ पर मेरे पिताजी का बहुत स्नेह था अतः उपरोक्त वृत्तान्त सुनकर वे बहुत ही हर्षित हुए और मेरे सिर को सूघकर प्यार से हाथ फेरते हुए उन्होंने कहा-'पुत्र ! बहुत अच्छा किया, तुमने पढने लिखने का अच्छा प्रयत्न किया, पर मुझे अभी भी तुझे एक बात कहनी है।' मैंने कहा-'कहिये, पिताजी !' मेरे ऐसा कहने पर पिताजी बोले
विद्यायां ध्यानयोगे च, स्वभ्यस्तेऽपि हितैषिणा । सन्तोषो नैव कर्त्तव्यः, स्थैर्य हितकरं तयोः ।।
जो व्यक्ति अपना हित करने की इच्छा रखता है उसे विद्या प्राप्त करने में और ध्यान-योग की सिद्धि करने में चाहे कितना भी प्रयत्न किया हो तब भी कभी उस पर संतोष धारण कर बैठ नही जाना चाहिये, क्योंकि इनमें अभ्यास बढाकर जितनी अधिक स्थिरता प्राप्त कर ली जाय उतने ही वे अधिक हितकारी होते हैं । अतः जितनी कलानों में तुमने अभी तक निपुणता प्राप्त की है उन्हें स्थिर करने में और जो शेष रह गई हैं उन्हें अपनी कुमारावस्था में प्राप्त कर तुझे मेरे सर्व मनोरथ पूर्ण करने चाहिये। [५-८]
पिताजी के इस उपदेश को मैंने स्वीकार किया जिससे वे मुझ पर बहुत प्रसन्न हुए और अपने भण्डारी (कोषाध्यक्ष) को आज्ञा दी कि महामति कलाचार्य के घर को धन, धान्य, सुवर्ण आदि से इतना अधिक भर दो कि सर्व प्रकार के उपभोगों की सामग्री वहाँ उपलब्ध हो जाय, जिससे कुमार व्यग्रता रहित होकर कलाग्रहण में वृद्धि कर सके।
राज्य के भण्डारी ने राजाज्ञा के अनुसार कार्य किया । उस समय कलाचार्य मन में सोचने लगे कि 'यदि राजा को कुमार के वास्तविक चरित्र का पता लगेगा तो उसके मन में व्यर्थ का संताप होगा, अत: मुझे कुछ भी नहीं कहना चाहिये। ऐसा सोचकर उन्होंने मेरे सम्बन्ध में * पिताजी को कुछ भी नहीं कहा । अन्त में पिताजी ने मुझ से कहा- 'पुत्र ! अभी तक आचार्य के पास से तू ने जो-जो विद्यायें सीखी हैं उन्हें स्थिर कर और प्राचार्य के घर पर रहकर ही अन्य अपूर्व कलायें भी सीख । अभ्यास में अधिक ध्यान रहे अतः तू मुझ से मिलने भो यहाँ मत पाया कर।' मैंने पिताजी की बात स्वीकार की और मुझे प्रसन्नता हुई।
* पृष्ठ ३०८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org