Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
योग प्राप्त न हुए हों उन्हें प्राप्त करने का विशेष प्रयत्न करना चाहिये । प्रमाद पर विशेष रूप से अंकुश रखना चाहिये । प्रमाद के उत्पन्न होने के पहले ही उसके प्रतिरोध (रोकने) की योजना बना लेनी चाहिये । जो प्राणी इस प्रकार का व्यवहार करते हैं उनके सोपक्रम कर्म (प्रयत्न द्वारा तप आदि से जिनका क्षय सम्भव हो) नष्ट होते हैं और निरुपक्रम कर्म (निकाचित कर्म जिन्हें भोगना पड़ता है) का नया बन्धन रुक जाता है । आप लोगों को भी इस प्रकार का प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि आपकी भविष्य की प्रगति के लिये यह अत्यावश्यक है। देशना का प्रभाव : नरवाहन के प्रश्न
आचार्य विचक्षण का ऐसा सुन्दर एवं मामिक उपदेश सुनकर सभा में कुछ भव्य जीवों को चारित्र ग्रहण करने की इच्छा हुई, कुछ को श्रावक के व्रत ग्रहण करने की इच्छा हुई, कुछ जीवों के मिथ्यात्व का नाश हुआ, कुछ जीवों के राग-द्वेष आदि विकार दुर्बल हुए और कइयों को भद्रिक भाव (सरल स्वभाव प्राप्त हुआ। प्राचार्यश्री का उपदेश सुनकर सभी ने उनके चरण छुए और कहने लगे कि, 'हे स्वामिन् ! आपकी जैसी प्राज्ञा हो हम वैसा ही अनुष्ठान करने की इच्छा रखते हैं।' उसी समय राजा नरवाहन ने सोचा कि इन्होंने तरुणावस्था में संसार-त्याग क्यों किया और दीक्षा क्यों ली ? इस शंका का निवारण करने के लिये उन्होंने आचार्यश्री को हाथ जोड़ मस्तक झुका कर पूछा-भगवन् ! आपका सुन्दर रूप मनुष्यों में असाधारण है, आपकी आकृति से ही लगता है कि आप महान् ऐश्वर्य सम्पन्न हैं. तथापि आपने इस भरी जवानी में वैराग्य धारण किया इसका क्या कारण है ? क्या आप यह बताने की कृपा करेंगे ? [१]
__ प्राचार्य ने कहा-राजन् ! आपको यह कौतूहल है कि मुझे संसार से वैराग्य क्यों हुआ ? मैं आपकी जिज्ञासा का समाधान करता हूँ, किन्तु - [२]
आत्मस्तुतिः परनिन्दा, पूर्वक्रीडितकोर्तनम् ।
विरुद्वमेतद्राजेन्द्र ! साधूनां त्रयमप्यलम् ।।
हे राजेन्द्र ! साधुओं को तीन बातों के वर्णन का विशेष रूप से निषेध किया गया है (१) आत्मस्तुति, (२) परनिन्दा, और (३) पूर्वकाल में की हुई आनन्द-क्रीडा का वर्णन । यह तीनों बातें साधु के आचरण के विरुद्ध हैं और मुझे अपन. आत्मकथा कहने में इन तीनों का वर्णन करना पड़ेगा, इसलिये मुझे अपने चरित्र पर प्रकाश डालना उचित नहीं लगता। [३-४]
नरवाहन-भगवन् ! ऐसा कहकर तो आपने मेरे मन में आपकी आत्मकथा के प्रति अधिक जिज्ञासा उत्पन्न कर दी है, अतः अब तो आप मुझ पर कृपा कर अपना चरित्र अवश्य ही बतावें । [५]
राजा के प्राग्रह को देखकर और यह समझ कर कि मेरे वैराग्यकारण को सुनकर राजा और अन्य लोगों को भी ज्ञान तथा वैराग्य प्राप्त होगा। फलतः प्राचार्य ने मध्यस्थ वृत्ति से अपना चरित्र कहना प्रारम्भ किया। [६)
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