Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ४ : नरसुन्दरी से लग्न
४२६.
बहुत उत्साहित किया और मैंने भी अपने हृदय पर स्तब्धचित्त लेप खूब अच्छो तरह लगाया । फिर शैलराज के प्रभाव / छाया में ही मैंने अपने मन में विचार किया कि मेरे अतिरिक्त इस नवयुवती से विवाह करने योग्य और कौन हो सकता है ? कामदेव को छोड़कर रति न तो अन्य किसी के पास जाती है, न अन्य किसी को स्वीकार करती है ।
रिपुदाररण की परीक्षा में असफलता
नरसुन्दरी ने आते ही मेरे पिताजी और अपने पिताजी को विनय पूर्वक नमस्कार किया । फिर नरकेसरी राजा ने अपनी पुत्री से कहा - 'पुत्री ! यहाँ बैठ | लज्जा छोड़कर तेरे जो-जो मनोरथ हो उन्हें पूर्ण कर । कलाकौशल के विषय में तुझे जो भी प्रश्न कुमार रिपुदारण से करने हों उन्हें कर ।' नरसुन्दरी ने हर्षित होकर कहा - 'जैसी पिताजी की आज्ञा । मैं गुरुजनों (बड़े लोगों) के समक्ष कला सम्बन्धी वर्णन करू ं यह मुझे योग्य प्रतीत नहीं होता, अतः कुमार रिपुदारण ही सर्व कलानों के सम्बन्ध में वर्णन करें । प्रत्येक कला के सम्बन्ध में जब ये वर्णन करेंगे तब उस कला के विषय में जो विशिष्ट प्रश्न-स्थल होंगे वहाँ में उनसे प्रश्न करती रहूँगी और कुमारश्री उसका उत्तर देते हुए मेरे प्रश्न का समाधान करते रहेंगे ।' यह प्रस्ताव सुनकर दोनों महाराजा, दोनों राजकुल, दोनों तरफ के राज्याधिकारी और प्रजाजन बहुत ही आनन्दित हुए। उस समय मेरे पिताजी ने मुझ से कहा - 'कुमार ! राजकुमारी ने बहुत ही समुचित प्रस्ताव रखा है, अत: अब तुम इस प्रश्न को स्वीकार करो और समग्र कलाओं का विवेचन कर कुमारी का मनोरथ पूर्ण करो । मुझे भी आनन्दित करो जिससे अपनी कुल कीर्ति अधिक निर्मल होकर उसकी विजय पताका फहरे । तेरे ज्ञान प्रकर्ष की यह कसौटी ( परीक्षा भूमि) है । '
उस समय मेरी तो ऐसी दशा हो गई कि मैं तो कलात्रों के नाम तक भो भूल गया, मैं दिङ्मूढ हो गया, मेरा सारा शरीर कांपने लगा, शरीर से पसीना भरने लगा, रोंगटे खड़े हो गये और आँखे गीली हो गईं । देवी सरस्वती तो मेरे से दूर ही चली गई ।
कलाचार्य द्वारा राजा के भ्रम का निराकरण
मेरी ऐसी अवस्था देखकर मेरे पिताजी बहुत ही खिन्न हुए और महामति कलाचार्य के सन्मुख देखने लगे । कलाचार्य ने मेरे पिताजी से पूछा - 'कहिये महाराज ! क्या आज्ञा है ?' तब मेरे पिताजी ने आचार्य से पूछा - 'श्राचार्य ! कुमार के शरीर की यह क्या दशा हो गई, वह बोलता क्यों नहीं ?' आचार्य मेरे पिताजी के अति निकट आये और उन दोनों में फिर बहुत धीरे-धीरे दूसरा कोई न सुन सके इस प्रकार वार्तालाप हुआ
प्राचार्य - महाराज ! कुमार के मन में बहुत घबराहट हुई है, उसी का यह विकार है, अन्य कुछ नहीं ।
* पृष्ठ ३१०
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