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उपमिति-भव-प्रपंच कथा पड़ गई । पर, मैंने क्रोधित होकर कहा-'जा, निकल जा, अवस्तु की प्रार्थना करने बाली ! अर्थात् उस दुष्टा का पक्ष लेने वालो तू भी यहाँ से निकल जा। मेरी दृष्टि से दूर हो जा। मुझे तेरी भो कोई आवश्यकता नहीं है । मैंने जिस दुष्टा को यहाँ से निकाल दिया उसी को तुम सहारा दे रही हो।' ऐसा कहते हुए मैंने क्रोध में अपनो माता पर पाद-प्रहार भी कर दिया ।
__अहो, हे भद्रे अगृहोतसंकेता! मुझ पापी ने शैलराज की प्रभाव-छाया में जब अपनी माता को भी लात मार दी और उसका तिरस्कार कर दिया तब वह समझ गई कि मैं अपने दुराग्रह को त्याग कर अपना निर्णय बदलने वाला नहीं हूँ। वह बेचारी एकदम निराश होकर आँखों से आँसू गिराती हुई जैसी आई थी वैसी ही वापस लौट गई और मेरी पत्नी नरसुन्दरी को सब कुछ कह सुनाया । सुनते ही नरसुन्दरी मूछित होकर जमीन पर गिर पड़ी, जैसे उस पर कोई वज्राघात हुआ हो। माता ने उस पर चन्दन और शीतल जल का उपचार किया और पंखे से पवन किया। कुछ देर बाद उसे चेतना आई और वह जोर-जोर से विलाप करने लगी।
। उसे रोती देखकर मेरी के माता विमलमालती ने कहा-पुत्री ! क्या करूं? तेरा पति तो सचमुच वज्र जैसा कठोर हृदय का हो गया है, पर तू रो नहीं, शोक का त्याग कर । साहस के साथ इस उपाय का अवलम्बन ले और तू स्वयं जाकर अपने पति को प्रसन्न करने का प्रयत्न कर । तेरे स्वयं जाने से सम्भव है तेरे प्रति उसका जो पूर्व प्रेमाकर्षण है वह फिर से उसे आकर्षित करले और वह तुझ पर पुनः प्रसन्न हो जाय । कामी पुरुष का हृदय मृदुता से ही जीता जा सकता है । इस अन्तिम प्रयत्न के बाद भी अगर वह प्रसन्न न हो तो मन में दुःख या पश्चात्ताप नहीं रहेगा कि तूने अन्तिम उपाय नहीं किया । कहावत भी है कि “अपने प्रिय पुरुष को भली प्रकार समझाने से प्रेम में अवरोध नहीं होता और जनमानस में भी यह अपवाद नहीं उठता कि इस विषय में पूरा प्रयत्न नहीं किया गया ।" नरसुन्दरी को प्रेम-याचना : प्रौद्धत्य पूर्ण भर्त्सना ।
__ नरसन्दरी ने माता की आज्ञा शिरोधार्य की और अविलम्ब ही मुझे प्रसन्न करने के लिये वहाँ से चल पड़ी । वह मेरे पास आ रही है और न जाने मेरा उसके प्रति कैसा कठोर व्यवहार हो, इस शंका से मेरी माता भी छिपकर उसके पीछे-पीछे आ गई । मेरी पत्नी कक्ष में मेरे पास आई और बाहर द्वार के पास छिपकर मेरी माता खड़ी रही।
नरसुन्दरी ने अत्यन्त विनम्र और प्रेमपूरित शब्दों में कहा-'मेरे माथ! प्रिय प्राबल्लभ ! स्वामी ! प्राणजीवन ! प्रेमसागर ! इस अभागिन स्त्री पर कृपा करिये । शरणागत पर कृपा दृष्टि रखने वाले मेरे प्रभो ! भविष्य में मैं कभी ऐसा कोई कार्य नहीं करूंगी कि जिससे आपके मन को किंचित् भी दुःख हो । हे नाथ ! आपके अतिरिक्त त्रैलोक्य में भी मेरा कोई शरण-स्थान नहीं है।।१-२] 2 पृष्ठ ३१६
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