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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
शैलराज के साथ वार्तालाप
मेरे मित्र शैलराज के प्रति मेरा मन अत्यधिक सन्तुष्ट था । एक दिन मैं अपने मित्र को अत्यन्त विश्वस्त वचनों द्वारा स्नेहावेश से कहने लगा-मित्र ! बन्धु ! लोगों में मेरा इतना यश फैला और आज कल मेरी आज्ञा का इतना अधिक पालन होता है, यह सब तेरा ही प्रताप है। (५८-५९]
__ मेरी प्रशंसा से शैलराज अपने मन में अत्यधिक प्रसन्न हया, किन्तु ऊपर से प्रसन्नता को प्रकट नहीं करते हुए वह मुझे कहने लगा-कुमार ! इसका परमार्थ मैं अभी तुम्हें बताता हूँ। तुमने जो मेरी प्रशंसा की उसका कारण मैं नहीं तुम स्वयं ही हो । सत्य यह है कि संसार में जो स्वयं दुगुणी होता है वह गुरणों से परिपूर्ण अन्य व्यक्ति को भी अपनी मान्यतानुसार दोषों से भरा हुआ ही मानता है, जब कि सज्जन पुरुष दोष से भरे हुए अन्य व्यक्ति को भी अपने विशुद्ध विचारों के अनुसार गुणों का मन्दिर ही मानते हैं। इसी मान्यता के अनुसार मेरे जैसा गुरण-रहित सामान्य व्यक्ति भी तुम्हारी दृष्टि में गुरणों से परिपूर्ण दिखाई देता है, इसका कारण तुम्हारी सज्जनता ही है । इसलिये मेरी तो यह दृढ धारणा है कि यह सब यश और प्रताप तुम्हारा स्वयं अपने परिश्रम से अजित किया हुआ है । मेरी स्वयं की प्रसिद्धि भी तुम्हारे ही प्रताप से हुई है । वस्तुतः देखा जाय तो मेरा तो अस्तित्व ही क्या है ? [६०-६५]
हे भद्रे ! शैलराज के ऐसे प्रेमपूर्ण मनोहारी वचन सुनकर मैं उस पर अधिक अनुरक्त हुआ। उस समय मैंने अपने मन में सोचा कि, अहा ! यह शैलराज मेरे प्रति कितना स्नेहशील है, यह हृदय से कितना गम्भीर है, इसकी वाणी में कितनी मिठास है और इसका भाव प्रकट करने का तरीका भी कितना आकर्षक है । मन में इस प्रकार सोचते हुए मैंने शैलराज से कहा-मित्र! तुम्हें मेरे समक्ष इस प्रकार के प्रौपचारिक वचन कहने की क्या आवश्यकता है ? तुझ में कितनी अद्भुत शक्ति है यह तो अब मुझे ज्ञात हो गया है। [६६-६८]
मेरी ओर से ऐसे स्नेहासिक्त शब्द सुनकर शैलराज बहुत हर्षित हुआ। फिर अपनी कार्यसिद्धि के लिये उसने कहा भाई ! जब स्वामी स्वयं ही दास पर कृपा करने को प्रस्तुत हो तब उसका भला क्यों नहीं होगा ? सुन, मैं एक और बात बताता हूँ। जब मेरे जैसे साधारण मनुष्य पर आपकी इतनी कृपा हुई है, तब आज मैं एक बहुत ही गोपनीय रहस्य बताता हूँ, उसे आप स्वीकार करें। मेरे पास हृदय पर लगाने का वीर्य वर्धक (शक्तिवर्धक) एक लेप है उसे प्रतिक्षण (बार-बार) अपने हृदय पर लगाते रहें। [६६-७१]
मैंने पछा-यह लेप तुझे कहाँ से प्राप्त हुआ? इस लेप का क्या नाम है ? इसको हृदय पर लगाने से किस फल की प्राप्ति होती है ? * यह मैं जानना चाहता हूँ। * पृ० ३०२
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