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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
पर्वक मेरा समय उसके साथ बीतने लगा। वस्तुतः दुर्भाग्यवश उस समय मोह से मेरा मन इतना अधिक भ्रमित हो गया था कि स्नेह के आवेश में मुझे यह पता ही नहीं लगा कि यह शैलराज परमार्थ से तो मेरा यथार्थतः शत्रु ही है । [२१-२६] शैलराज की मेरे आचरण पर छाप
इस प्रकार जैसे-जैसे दिन व्यतीत होते गये वैसे-वैसे शैलराज के साथ मेरी मित्रता बढ़ती ही गई । फलस्वरूप मेरे मन में विविध प्रकार के निम्नांकित वितर्क उठने लगे। मेरे मन में यह विचार उठा कि, 'मेरी क्षत्रिय जाति सब से उत्तम है । मेरा कुल सब कुलों से अधिक श्रेष्ठ है । मेरे बल/पराक्रम का यश त्रिभूवन में फैल रहा है। मेरा रूप इतना सुन्दर है कि मेरे रूप से ही यह पृथ्वी शोभायमान हो रही है। मेरा सौभाग्य जगत को आनन्दित करने वाला है । मेरा ऐश्वर्य विश्व में सब से बढ़कर है। विगत भव में पठित ज्ञान आज भी मेरे सन्मुख स्फुरित हो रहा है । मेरी लाभ प्राप्त करने को शक्ति तो इतनी अद्भुत है कि यदि मैं इन्द्र से कहूँ कि तेरी गद्दी मुझे सौंप दे तो वह प्रसन्नता से अपना स्थान मुझे सौंप दे, परन्तु अभी तो मुझे उसके स्थान की-इन्द्र पद की आवश्यकता ही नहीं है। इसके अतिरिक्त भी इस संसार में तप, वीर्य, धैर्य, सत्त्व आदि जो अनेक प्रकार के गुण और शक्तियाँ हैं वे सब तीनों भूवनों को छोड़कर मेरे में ही निवास कर रही हैं। * इसमें आश्चर्य भी क्या है ? जिसे ऐसे अच्छे मित्र की मित्रता प्राप्त हुई हो, उसके गुणसमूह के गौरव का सम्पूर्ण वर्णन कौन कर सकता है ? साधारणतौर पर संसार में प्रत्येक प्राणी के एक मुह होता है, जबकि मेरे मित्र के तो आठ मुंह हैं । मेरा मित्र तो अपने पाठ मुखों से ही सब पर विजय प्राप्त कर सकता है। अहा ! जिसे शैलराज जैसा मित्र मिल जाय उसे इस संसार में ऐसी कौनसी वस्तु है जो नहीं मिल सकती ?' शैलराज के प्रति लिप्त-चित्त होकर ऐसे-ऐसे संकल्प-विकल्पों के कारण
और मिथ्याभिमान वश मैं अपने आपको बहुत बड़ा और अन्य सब को क्षुद्र मानने लगा । ऐसे व्यवहार के परिणाम स्वरूप जब मैं चलता तो अपनी गर्दन को सर्वदा ऊँची उठाये रखता, मानों मैं आकाश के तारे या नक्षत्र देख रहा हूँ। घमंड से मैं मदोन्मत्त पागल हाथी के समान कभी सामने या नीची नजर नहीं करता । हवा भरी हई निस्सार मशक या धौंकनी की भांति व्यर्थ में ही मैं सर्वदा मद से फूला हुआ अक्खड़ता में ही रहने लगा। [३०-४० अहंकारजन्य व्यवहार
__ गर्वोन्मत्तता के कारण मैं अपने मन में प्रतिदिन यही सोचा करता था कि इस संसार में मेरे से बड़ा कोई प्राणी नहीं है जो मेरे द्वारा नमस्कार करने योग्य हो; क्योंकि मुझ में इतने अधिक गुण हैं कि यदि गुणों से ही कोई वन्दन करने योग्य हो सकता है तो संसार के समस्त प्राणी गुणों की अपेक्षा से मुझ से नीचे हैं। अर्थात् सब * पृष्ठ ३००
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