Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-प्रपंच-भव कथा से बने करचित्त बड़े उसके चित्त रग-रग में प्रवेश कर जाते हैं। इस प्रकार तेरे चित्त में प्रवेश किये हुए बड़े अब तेरे साथ तन्मय हो गये हैं। संक्षेप में बड़ों के प्रताप से अब तू वोर्य में पूर्णरूप से मेरे समान ही हो गया है । पुनश्च, मेरी बात मानकर तुझे साक्षात् हिंसा देवी भी मिल गई है, जो तेरे जैसी ही तेजस्विनी है । तेरा शरीर वैश्वानरमय और तू स्वयं हिंसामय बन गया है। अब तुझे किसी प्रकार का सन्देह नहीं रखना चाहिये।' मैंने उत्तर में कहा - 'अभी भी मुझे एक सन्देह है।' बंगाधिपति के साथ युद्ध और विजय
__ हम दोनों के बीच उपरोक्त बातचीत चल ही रही थी कि हमें शत्रु की सेना दृष्टिगोचर होने लगी । शत्रु सेना ने भी दूर से ही हमारी सेना को देख लिया था । तुरन्त ही शत्रु सेना ने व्यूह की रचना की और हमसे लड़ने के लिये हमारे सामने आ गई । शत्रु सेना और हमारी सेना के मध्य घमासान युद्ध शुरु हो गया।
रथों के घरघराहट से, हाथियों की विकराल गर्जना से, घोडों के उद्दाम हेषारव से और पैदल सेना के भीषण घोष से युद्ध का मैदान बहुत भयंकर लगने लगा। थोड़ी ही देर में रथ के चक्र और कूबर टूटने लगे, मदोन्मत्त हाथी विदीर्ण होने लगे, घोड़ों की पंक्तियाँ सवार बिना होने लगी, पैदल सेना के धड़ाधड़ सिर कटने लगे, सेना कम होने लगी, आकाश में देव-दानव भी भगदड़ करने लगे, सिर रहित धड़ ही हाथ में तलवार लेकर युद्ध क्षेत्र में नाचने लगे। [१-३]
इस प्रकार लड़ते-लड़ते यवनराज ने हमारी सेना को पीछे खदेड़ दिया। उसकी सेना में जयघोष की हर्ष ध्वनि होने लगी। उसी समय मैं अकेला उसके सामने गया। यवनराज भी अकेला मुझ से युद्ध करने मेरे सामने आया। हम दोनों के रथ एक दूसरे के आमने-सामने आ गये । उस समय मैंने रथ के जुए पर खड़े होकर एक जोर की छलांग लगाई और उसके रथ में कूद गया । कूदने के साथ ही मैंने यवनराज का सिर अपने हाथ से काट दिया।
यह देख कर मेरी सेना जो पीछे हट रही थी संतोष सूचक जयघोष के साथ वापस आने लगी। [१] माता-पिता से मिलन
देवता, गन्धर्व और राक्षसों ने * मेरे पराक्रम का वर्णन करते हए सुगन्धित जल और पुष्पों की मुझ पर वर्षा की। शत्रु सेना के नायक का नाश होने से सम्पूर्ण शत्रु सेना बिना प्रयत्न के मेरे अधीन हो गई। मेरे माता-पिता यह समाचार सुनकर सभी बन्धु-बान्धवों के साथ नगर से बाहर निकलकर मुझ से मिलने आये । साथ में नगरवासी अपने बच्चों को लेकर मुझे धन्यवाद देने वहाँ उपस्थित हुए। [२-४]
उस समय मैंने रथ से उतरकर पिताजी के चरण स्पर्श किये । उन्होंने कन्धे से उठाकर मुझे खड़ा किया, हर्षाश्रुषों की वर्षा से मुझे स्नपित करते हुए मुझे * पृष्ठ २६६
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