Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : पुण्योदय से बंगाधिपति पर विजय
३५ε मतिधन प्रभी हम जिस निर्णय पर पहुँचे हैं उसे शीघ्र महाराजा पद्म को सूचित करना चाहिये ।
बुद्धिविशाल - नहीं, नहीं, यह बात महाराजा को नहीं बतानी चाहिये । मतिधन- क्यों, उनको बताने में क्या आपत्ति है ?
बुद्धिविशाल - पद्म राजा को अपने पुत्र पर बहुत प्रेम है, अतः ऐसे संकट के समय में वे अपने पुत्र का यहाँ श्राना रागवश पसन्द न भी करें, इसीलिये इस बारे महाराजा को सूचित नहीं करना ही अच्छा रहेगा ।
प्रज्ञाकर - मतिधन ! बुद्धिविशाल ने जो बात कही है वह अवश्य ही विचार करने योग्य है । मुझे तो यह बात उचित ही लग रही है । इस विषय में अधिक सोच विचार करने से क्या ? मेरे विचार से तो महाराजा को बिना सूचित किये ही गुप्त रूप से दूत को कुमार के पास भेजकर सब समाचार कहलाकर राजकुमार को शीघ्र यहाँ बुला लेना चाहिये जिससे सर्वत्र शान्ति हो जाय । मतिधन - ठीक है, फिर ऐसा ही करें ।
कुमार नन्दिवर्धन ! इस प्रकार प्रधानों में बातचीत होने के पश्चात् सर्वरोचक प्रधान ने मुझे आपके पास भेजा है ।
जयस्थल की ओर प्रयारण
दूत की इतनी बात सुनते ही मेरे शरीर में रहने वाला मेरा मित्र वैश्वानर उल्लसित हो जागृत हो गया । अब अपना चमत्कारी प्रभाव दिखाने का अच्छा अवसर आ गया है, यह जानकर मेरी प्रिया हिंसा देवी भी अत्यन्त प्रसन्न हुई । मैंने जोर से कहा--' सेना के प्रस्थान की भेरी बजाओ ! कूच का रणसिंगा फूंको । मेरी चारों प्रकार की सेना को तैयार करो ।' मेरी इच्छा को समझकर मेरे सेनाधिकारियों ने कूच की तैयारी कर दी । मेरी सेना के साथ मैं वहाँ से चल निकला । क्रोधवश मैंने महाराजा कनकचूड या कुमार कनकशेखर को कुछ भी सूचित नहीं किया । कनकमंजरी से प्रेम के कारण मरिणमंजरी हमारे साथ श्रायी । अनवरत कूच करते हुए थोड़े ही दिनों में हम जयस्थल नगर के निकट पहुँच गये ।
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वैश्वानर का उग्र प्रभाव
मैंने मित्र वैश्वानर से कहा - 'मित्र ! आजकल तो मुझ में प्रतिक्षरण सतत तेजस्विता रहती है, जिससे मुझे बड़ों का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं रहती । पहले तो तेजस्विता लाने के लिये मुझे बड़ों का प्रयोग करना पड़ता था । यह सब परिवर्तन कैसे हुआ ?' वैश्वानर ने उत्तर दिया- 'मित्र ! कृत्रिमता रहित भक्ति से ( मैं ) भक्त के वश में हो जाता हूँ । तुम्हारी मुझ पर अन्तःकरण की अतुलनीय गहरी भक्ति है । जिस प्रारणी को मुझ पर सच्ची भक्ति होती है, मेरे वीर्य
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