________________
३७४
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
आपबीती (आत्म-चरित) उसे कह सुनाई । सुनकर विभाकर बोला- अरे भाई ! बड़े दुःख की बात है ! अपने माता-पिता आदि को मारने का अतिगर्हणीय दया रहित कार्य कर तुमने ठीक नहीं किया । देख, इस भयंकर कार्य के परिणाम स्वरूप तुमने जो इस भव में ही इतने दुःख पाये वे सब इसी प्रकार्य के फल हैं ।' विभाकर के हित वचन सुनते ही मेरे मन में रहे हुए वैश्वानर और हिंसा जाग्रत हो गए और मैं सोचने लगा कि 'सचमुच यह विभाकर भी मेरा शत्रु ही है, क्योंकि यह भी मेरे शत्रु-नाश के कार्य को अकार्य और अशोभनीय मानता है। अतः मैंने निश्चय किया कि इसे भी मार देना चाहिये । किन्तु, मेरा शरीर अत्यधिक निर्बल हो गया था और विभाकर का राज्य-प्रताप बहुत अधिक था। फिर मेरे पास कोई शस्त्र भी नहीं था
और पास ही अनेक सशस्त्र राजपुरुष खड़े थे, अतः मैंने विभाकर पर प्रहार तो नहीं किया. हाथ तो नहीं उठाया किन्तु अपना मुंह जरूर बिगाड़ लिया। विभाकर मेरा अभिप्राय समझ गया । वह जान गया कि मुझे उसकी बात पसन्द नहीं आई है, अतः इस प्रसंग को फिर से छेड़कर नन्दिवर्धन का मन दु:खाने से क्या लाभ ? यह सोचकर विभाकर ने इस प्रसंग को यहीं समाप्त कर दिया।
तदनन्तर राजा विभाकर ने अपने सामन्तों और सरदारों से कहा-'यह कुमार नन्दिवर्धन मेरा परम मित्र है। यह मेरा शरीर, मेरा जीवन-सर्वस्व, मेरा भाई, मेरा परम स्नेही और पूजनीय है । इसके दर्शन से मुझे आज बहत आनन्द प्राप्त हुआ है, अतः स्नेहीजनों के मिलने पर जो महोत्सव किया जाता है वह सब करो।' उन्होंने राजाज्ञा को शिरोधार्य किया। पश्चात् राजकुल में खूब आनन्द मनाया गया । मुझे विधिपूर्वक नहलाया, दिव्य वस्त्राभूषण पहनाये, अत्यन्त स्वादिष्ट परमान्न का भोजन कराया और मेरे शरीर पर सुगन्धित पदार्थों का लेप किया । * मुझे महान् मूल्यवान अलंकार धारण कराये गये और अन्त में विभाकर ने स्वयं अपने हाथ से मुझे पान खिलाया । विभाकर मेरे लिये इतना कर रहा था फिर भी मैं तो अपने मन में यही सोच रहा था कि 'इसने मुझे कहा था कि मैंने अपने माता-पिता आदि को मार डाला यह कार्य अच्छा नहीं किया, अतः यदि अवसर मिले तो मझे इस वैरी/पापी को मार ही देना चाहिये।' ऐसे रौद्र वितर्कजालों के कारण मुझे यह भी ध्यान नहीं रहा कि विभाकर स्वयं मुझे कितना मान दे रहा है। भोजनशाला से निकलकर. हम सब सभाभवन में आये। वहाँ विभाकर के मंत्री मतिशेखर ने कहा-'प्रात: स्मरणीय महाराज प्रभाकर देवलोक हो गये यह तो आपको पता ही होगा ?' उत्तर में मैंने सिर हिलाकर हामी भरी। विभाकर की आँखों में आँसू आ गये, बोला- 'मित्र ! पिताजी तो परलोक में गये, अब तुम्हें ही पिताजी का स्थान लेना है । यह राज्य, हम सब, हमारा मन्त्रीमण्डल और प्रजाजन जो पिताजी की कृपा से प्रानन्द में थे, वे सब आपके सेवक हैं और
* पृ० २७०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org