Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्ताव ३ : खूनी नन्दिवर्धन की कदर्थना
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आपकी सेवा में उपस्थित हैं । आपकी इच्छानुसार श्राप हम से कार्य करायें ।' त्रिभाकर ने मुझ से इतनी उदार प्रार्थना की जिसका मुझे आभार मानना चाहिये था, पर मेरे मन में बसे हुए वैश्वानर में इस प्रकार का कोई भी गुण था ही नहीं, अतः किसी प्रकार के प्रभार प्रदर्शन के बिना ही मैं मौन धारण कर चुपचाप बैठा रहा ।
सन्मानदाता विभाकर का खून
वह दिन आनन्द पूर्वक बीत गया । सन्ध्या को नित्य की भांति राज्यसभा बुलाई गई और अन्त में विसर्जित भी हुई । पश्चात् शयन कक्ष में अपनी प्रिय स्त्रियों को आने के लिये निषेध कर, मेरे साथ प्रगाढ स्नेह होने के कारण महामूल्यवान शय्या में नरेन्द्र विभाकर मेरे साथ सोया । हे श्रगृहीतसंकेता ! उस समय हिंसा और वैश्वानर ने मेरे मन को इतना चाण्डाल बना दिया था कि मुझ पर विश्वास करने बाले सरल हृदय विभाकर को मुझ पापी ने रात में उठाकर, नीचे पटक कर मार दिया । फिर इस घृणित दुष्कर्म के त्रास से शरीर पर केवल एक वस्त्र धारण कर मैं कनकपुर नगर से बाहर निकल गया ।
कुशावर्त में सन्मान : कनकशेखर को
मारने का प्रयत्न
1
भयंकर रात्रि में अकेला निकल कर वेग से दौड़ते हुए मैं घने वन मैं पहुँच गया, जहाँ मैंने अनेक प्रकार के दुःख सहन किये । अन्त में भटकते हुए मैं कुशावर्तपुर नगर में पहुँचा । मैं नगर के बाहर उद्यान में विश्राम कर रहा था तभी मुझे कनकशेखर के नौकरों ने देख लिया, भ्रतः उन्होंने मेरे आने का समाचार महाराज कनकचूड और युवराज कनकशेखर को दिये । उन्होंने मन में सोचा कि कुमार नन्दिवर्धन यहाँ अकेला श्राया है, इसका कुछ कारण अवश्य होना चाहिये । वे अपने परिवार के विशेष सदस्यों के साथ मेरे पास आये । परस्पर सन्मान देने के पश्चात् मैं कनकशेखर के साथ जब बरांडे में अकेला बैठा तब उसने मुझ से अकेले आने का कारण पूछा । मुझे लगा कि इसको भी मेरा चरित्र और आचरण अच्छा नहीं लगेगा, अत: इसको अपनी सब बात कहने से क्या लाभ ? इसलिये मैंने कनक शेखर से कहा -- ' इस बात को रहने दे, इसमें कुछ तथ्य नहीं है ।' कनकशेखर को मेरा उत्तर कुछ विचित्र सा लगा इसलिये उसने फिर से पूछा - ' अरे भाई ! क्या मुझे भी अपने मन की बात नहीं बतायेगा ?' उत्तर में मैंने कहा- नहीं, यह बात कहने योग्य नहीं है ।' तब उसने अधिक आग्रह किया - ' भाई ! यह बात मुझे तो बतानी ही पड़ेगी । जब तक तुम मुझे यह बात नहीं बताओगे तब तक मुझे चैन नहीं पड़ेगा ।' 'मैंने बताने का निषेध किया तब भी यह समझता नहीं और मेरी आज्ञा का अनादर करता है, इस विचार से वैश्वानर और हिंसा मेरे मन में हलचल करने लगे । मैंने तत्क्षण ही कनकशेखर की कमर से यम की जिह्वा जैसी चमकती कटार खींच ली और
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