Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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उपमिति-भव-प्रपंच-कथा
प्रज्ञाविशाला के विचार
संसारी जीव इस प्रकार जब आप बीती सुना रहा था तब प्रज्ञाविशाला ने सोचा कि यह क्रोध (वैश्वानर) तो बहुत भयंकर है और हिंसा तो उससे भी दारुण भयंकर लगती है । पुनश्च, इस महा भयंकर संसार-समुद्र का कुछ अंश तो लंबन कर संसारी जीव ने बहुत कठिनाई से मनुष्य-भव प्राप्त किया तब भी वैश्वानर और हिंसा के वशीभूत होकर उसने स्वयं ने पूर्व-वरिणत महारौद्र कार्य किये । भगवान् के वचनों को भी मान नहीं दिया, मनुष्य का सम्पूर्ण भव हार गया, वैर की लम्बी श्रृंखला खड़ी कर ली । फलस्वरूप इसने संसार सागर में अनेक प्रकार को विडम्बनाएं * प्राप्त की और महादुःखों की परम्परा को स्वयं स्वीकार किया। इस हिंसा और वैश्वानर का इस जीव के साथ शत्रुताभाव अनुभव एवं प्रागम (शास्त्र) से सिद्ध है। फिर भी प्राणी इन दोनों के स्वरूप को नहीं जानता हो इस प्रकार आत्म-वैरी (अपना ही शत्रु) बनकर क्रोध करता है और बार-बार उसी हिंसादेवी का अनुवर्तन करता है । जो लोग जानते हुए भी ऐसा आचरण करते हैं वे पामर प्राणी निश्चित रूप से नन्दिवर्धन जैसी ही अनर्थ-परम्परा को प्राप्त करते हैं, करेंगे। इस चिन्ता से मेरे मन में बहुत व्याकुलता होती है ।
श्वेतपुर में प्राभोर : पुण्योदय का साथ
सदागम के समक्ष भव्यपुरुष और प्रज्ञाविशाला की उपस्थिति में संसारी जीव ने अगृहीतसंकेता को उद्देश्य कर कहा-भद्रे अगृहोतसंकेता ! इस प्रकार अनन्त काल तक अनेक स्थानों पर भटकाने के बाद भवितव्यता मुझे श्वेतपुर नगर में ले गई और मुझे प्राभोर (अहीर) का रूप दिया। जब मैंने इस रूप को धारण किया तब मेरा मित्र वैश्वानर कहीं छिप गया जिससे मैं कुछ शांत रूप वाला बन गया। अतः स्वभाव से ही मुझे कुछ दान करने की बुद्धि हुई। यद्यपि मैंने विशिष्ट शील का पालन नहीं किया, किसी संयम विशेष का प्राचरण नहीं किया तथापि घिसते-घिसते मैं कुछ मध्यम गुणों वाला बन गया । मुझे इस प्रकार सुधरता देखकर भवितव्यता मुझ पर अत्यन्त प्रसन्न हुई और उसने मेरे पर्व के मित्र पुण्योदय को फिर से जागत किया तथा उसे फिर से मेरा सहचर बनाया । उस भवितव्यता ने मुझे स्पष्ट कहा-आर्यपुत्र ! अब तुम सिद्धार्थपुर नगर में जाकर वहाँ आनन्द से रहो। यह पुण्योदय तुम्हारे साथ आयेगा और तुम्हारे मित्र एवं सेवक के रूप में कार्य करेगा। मैंने अपनी निश्चित विचार वाली भार्या के वचन को स्वीकार किया। उस समय एक भव में चलने वाली मेरी गोलो जीर्ण हो गई थी अतः भवितव्यता ने मुझे नयो गोली दो जो दूसरे भव में चल सके।
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